Tuesday 13 December 2011

माँसाहार अर्थात शैतान का प्रसाद .... वैश्विक अशान्ति का घर

माँसाहार अर्थात शैतान का प्रसाद .... वैश्विक अशान्ति का घर

माँसाहार को यदि "शैतान का प्रसाद" या  "अशान्ति का घर" कहा जाये, तो शायद कुछ गलत नहीं होगा. डा. राजेन्द्र प्रसाद जी नें एक बार कहा था कि "अगर संसार में शान्ति कायम करनी है तो उसके लिए दुनिया से माँसाहार को समाप्त करना होगा. बिना माँसाहार पर अंकुश लगाये ये संसार सदैव अशान्ति का घर ही बना रहेगा".


डा. राजेन्द्र प्रसाद जी नें कितनी सही बात कही है. ये कहना बिल्कुल दुरुस्त है कि माँसाहार के चलते दुनिया में शान्ति कायम नहीं रह सकती. शाकाहारी नीति का अनुसरण करने से ही पृथ्वी पर शान्ति, प्रेम, और आनन्द को चिरकाल तक बनाये रखा जा सकता है, अन्यथा नहीं.
पश्चिमी विद्वान मोरिस सी. किघली का भी कुछ ऎसा ही मानना है. उनके शब्दों में कहा जाए, तो " यदि पृथ्वी पर स्वर्ग का साम्राज्य स्थापित करना है तो पहले कदम के रूप में माँस भोजन को सर्वथा वर्जनीय करना होगा, क्योंकि माँसाहार अहिँसक समाज की रचना में सबसे बडी बाधा है".

आज जहाँ शाकाहार की महत्ता को स्वीकार करते हुए माँसाहार के जनक पश्चिमी राष्ट्रों तक में शाकाहार को अंगीकार किया जाने लगा है, उसके पक्ष में आन्दोलन छेडे जा रहे हैं, जिसके लिए न जाने कितनी संस्थायें कार्यरत हैं. पर अफसोस! भगवान राम और कृष्ण के भक्त, शाकाहारी हनुमान जी के आराधक, भगवान महावीर के 'जितेन्द्रिय', महर्षि दयानन्द जी के अहिँसक आर्य समाजी और रामकृष्ण परमहँस के 'चित्त परिष्कार रेखे' देखने वाले इस देश भारत की पावन भूमी पर "पूर्णत: शुद्ध शाकाहारी होटलों" को खोजने तक की आवश्यकता आन पडी है. आज से सैकडों वर्ष पहले महान दार्शनिक सुकरात नें बिल्कुल ठीक ही कहा था, कि-----"इन्सान द्वारा जैसे ही अपनी आवश्यकताओं की सीमाओं का उल्लंघन किया जाता है, वो सबसे पहले माँस को पथ्य बनाता है.". लगता है जैसे सीमाओं का उल्लंघन कर मनुष्य 'विवेक' को नोटों की तिजोरी में बन्द कर, दूसरों के माँस के जरिये अपना माँस बढाने के चक्कर में लक्ष्यहीन हो, किसी अंजान दिशा में घूम रहा हो.......

आईये हम माँसाहार का परिहार करें-----"जीवो जीवस्य भोजनं" अर्थात जीव ही जीव का भोजन है जैसे फालतू के कपोलकल्पित विचार का परित्याग कर "मा हिँसात सर्व भूतानि" अर्थात किसी भी जीव के प्रति हिँसा न करें----इस विचार को अपनायें.

माँस एक प्रतीक है---क्रूरता का, क्योंकि हिँसा की वेदी पर ही तो निर्मित होता है माँस. माँस एक परिणाम है "हत्या" का, क्योंकि सिसकते प्राणियों के प्रति निर्मम होने से ही तो प्राप्त होता है--माँस. माँस एक पिंड है तोडे हुए श्वासों का, क्योंकि प्राण घोटकर ही तो प्राप्त किया जाता है--माँस. माँस एक प्रदर्शन है विचारहीन पतन का, क्योंकि जीवों के प्रति आदर( Reverence of Life) गँवाकर ही तो प्राप्त किया जाता है--माँस.
इसके विपरीत शाकाहार निर्ममता के विपरीत दयालुता, गन्दगी के विपरीत स्वच्छता, कुरूपता के विरोध में सौन्दर्य, कठोरता के विपरीत संवेदनशीलता, कष्ट देने के विपरीत क्षमादान, जीने का तर्क एवं मानसिक शान्ति का मूलाधार है.

मांसाहार बीमारियों की जड़ हैं. इससे दिल के रोग, गोउट, कैंसर जैसे अनेको रोगों की वृद्धि देखी गयी हैं और एक मिथक यह हैं की मांसाहार खाने से ज्यादा ताकत मिलती हैं इसका प्रबल प्रमाण पहलवान सुशील कुमार हैं जो विश्व के नंबर एक पहलवान हैं और पूर्ण रूप से शाकाहारी हैं. आपसे ही पूछते हैं की क्या आप अपना मांस किसी को खाने देंगे. नहीं ना तो फिर आप कैसे किसी का मांस खा सकते हैं.


जो स्वयं अंधे हैं वे दूसरो को क्या रास्ता दीखायेंगे. हिन्दू जो पशु बलि में विश्वास रखते हैं खुद ही वेदों के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं. पशु बलि देने से केवल और केवल पाप लगता हैं, भला किसी को मारकर आपको सुख कैसे मिल सकता हैं. जहाँ तक वेदों का सवाल हैं मध्यकाल में कुछ अज्ञानी लोगो ने हवन आदि में पशु बलि देना आरंभ कर दिया था और उसे वेद संगत दिखाने के लिए महीधर, सायण आदि ने वेदों के कर्म कांडी अर्थ कर दियें जिससे पशु बलि का विधान वेदों से सिद्ध किया जा सके. बाद में माक्स्मुलर , ग्रिफीथ आदि पाश्चात्य लोगो ने उसका अंग्रेजी में अनुवाद कर दिया जिससे पूरा विश्व यह समझे की वेदों में पशु बलि का विधान हैं. आधुनिक काल में ऋषि दयानंद ने जब देखा की वेदों के नाम पर किस प्रकार से घोर प्रपंच किया गया हैं तो उन्होंने वेदों का एक नया भाष्य किया जिससे फैलाई गयी भ्रांतियों को मिटाया जा सके. देखो वेदों में पशु आदि के बारे में कितनी सुंदर बात कहीं गयी हैं-

ऋगवेद ५/५१/१२ में अग्निहोत्र को अध्वर यानि जिसमे हिंसा की अनुमति नहीं हैं कहा गया हैं.
यजुर्वेद १२/३२ में किसी को भी मारने से मनाही हैं
यजुर्वेद १६/३ में हिंसा न करने को कहा गया हैं
अथर्ववेद १९/४८/५ में पशुओ की रक्षा करने को कहा गया हैं
अथर्ववेद ८/३/१६ में हिंसा करने वाले को मारने का आदेश हैं
ऋगवेद ८/१०१/१५ में हिंसा करने वाले को राज्य से निष्काषित करने का आदेश हैं

इस प्रकार चारो वेदों में अनेको प्रमाण हैं जिनसे यह सिद्ध होता हैं की वेदों में पशु बलि अथवा मांसाहार का कोई वर्णन नहीं हैं.

रामायण , महाभारत आदि पुस्तकों में उन्हीं लोगो ने मिलावट कर दी हैं जो हवन में पशु बलि एवं मांसाहार आदि मानते थे.
वेद स्मृति परंपरा से सुरक्षित हैं इसलिए वेदों में कोई मिलावट नहीं हो सकती उसमे से एक शब्द अथवा एक मात्रा तक को बदला नहीं जा सकता.
रामायण में सुंदर कांड स्कन्द ३६ श्लोक ४१ में स्पष्ट कहाँ गया हैं की श्री राम जी मांस नहीं लेते वे तो केवल फल अथवा चावल लेते हैं.
महाभारत अनुशासन पर्व ११५/४० में रांतिदेव को शाकाहारी बताया गाय हैं.
शांति पर्व २६२/४७ में गाय और बैल को मारने वाले को पापी कहाँ गाय हैं.इस प्रकार के अन्य प्रमाण भी मिलते हैं जिनसे यह भी सिद्ध होता हैं की रामायण एवं महाभारत में मांस खाने की अनुमति नहीं हैं और जो भी प्रमाण मिलते हैं वे सब मिलावट हैं.


और सबसे महत्वपूर्ण बात ....

आज प्रत्येक होटल, रेस्तरां, ढाबे आदि पर जो मांसाहार मिलता है वो इस्लाम के हलाल सिद्धांत के अनुसार काट कर परोसा जाता है... झटका नही ल हलाल यानी शैतान के नाम पर चढ़ाया गया प्रसाद ... क्या आप ये प्रसाद ग्रहण करना चाहेंगे ?
और यदि कर रहे हैं तो आप सीधे सीधे ... इस्लामी शैतान में आस्था प्रकट कर रहे हैं ...


अब ये आप को सोचना है कि क्या आप अब भी माँस जैसे इस जड युगीन अवशेष से अपनी क्षुधा एवं जिव्हा लोलुपता को शान्त करते रहना चाहेंगें....................


जय श्री राम कृष्ण परशुराम ॐ

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