Friday 30 January 2015

Unveil The Mystery of Gandhi Vadh - Who is Mahatma, Gandhi or Godse?


Unveil The Mystery of Gandhi Vadh - Who is Mahatma, Gandhi or Godse?

गांधी वध का वस्तविक सत्य 

गांधी एक महात्मा या दुरात्मा, इस प्रश्न के खड़े होते ही लोगों के मत विभिन्न धारणाओं तथा गलतफहमियों के कारण वास्तविक निष्कर्ष पर नहीं प्शुंच पाते l

ये बात अपने आप में ही एक रहस्य लेकर सिमटी रह गयी या फिर तथ्य छुपा दिए गए, क्योंकि ये तो वो देश है जो जिसमे कुछ देशद्रोही मिल कर हराम खोर को भी हे-राम बना कर अपनी राजनीति करते हैं...

राम को रावण और रावण को राम बना कर पढ़ाया-लिखाया गया, परन्तु उससे सत्य बदल तो नही जाता, गाँधी वध से संबंधित मूल कारणों से संबधित जितने भी तथ्य तथा सत्य हैं वे आज हम सबके सामने होते यदि उस समय सोशल मीडिया का अस्त्र समाज को उपलब्ध होता l

हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे एक हिंदूवादी कार्यकर्ता होने के साथ साथ एक जाने माने पत्रकार भी थे, जो ‘अग्रणी’ नाम से अपना एक अखबार भी चलाते थे, आखिर एक पत्रकार को ओसो क्या आवश्यकता पड़ी कि उसने कलम छोड़ कर बंदूक उठाने का साहसिक निर्णय लिया, भारतीय पत्रकारों ने तो सदैव गोडसे के साथ पत्रकारिता के सन्दर्भ में भी सदैव भेदभाव ही किया गया l
गांधी वध के असली तथ्य सदा छिपाए गए.....


किसी को भी मारने के 2 मूल कारण होते हैं ...
1. किसी व्यक्ति ने अतीत में कुछ ऐसा किया हो जो आपको पसंद नहीं
2. और कोई व्यक्ति भविष्य में कुछ ऐसा करने वाला हो जो आपको पसंद नहीं

इन दोनों कारणों के इर्द गिर्द कारण अनेक हो सकते हैं ....
ऐसा ही एक कारण गंधासुर वध के साथ तथा भारत के भविष्य का जुड़ा हुआ था
गंधासुर वध 30 जनवरी को किया गया था...
बहुत ही कम लोग इस तथ्य से अवगत हैं कि गांधी वध का एक प्रयास 20 जनवरी 1948 को भी किया गया था l

20 जनवरी, 1948 को गाँधी के ठिकाने बिरला हाउस पर बम फेंका गया था जिसमें वो बच गया था, यह बम पाकिस्तानी पंजाब से भारत आये एक 19 वर्ष के युवा शूरवीर मदनलाल पाहवा ने फेंका था, वह दुर्भाग्यशाली रहा और गाँधी सौभाग्यशाली l

मदन लाल पाहवा का सबसे ज्वलंत प्रश्न आज भी सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर भारतीय सत्तालोलुपों की राजनितिक विफलता के कारण जो लोग विस्थापित हुए उन्हें शरणार्थी (
Refugee) क्यों कहा जाता था ?


विभाजन की त्रासदी में जो हिन्दू पाकिस्तान से भारत आये उन्हें दुरात्मा गांधी की बद्दुआओं का कोपभाजक बनना पड़ा, दुरात्मा गांधी पाकिस्तान से आये हुए हिन्दुओं को क्रोधवश कोसते हुए कहता था कि “तुम लोग यहाँ क्यों आये हो? जाओ वापिस चले जाओ, यदि मुसलमान तुम्हारी हत्या करके खुश होते हैं, तो उन्हें खुश करने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दो l”
ऐसे अनेकों लांछनों और आलोचनाओं से क्षुब्ध एक 19 वर्षीय युवा जो निस्संदेह अभी जीवन के उतार चढ़ावों की वास्तविकता से परिचित भी न हुआ था, उसके रक्त में उबाल भरने का कार्य गांधी तथा उसके सत्तालोलुप राजनेताओं ने किया l

क्या गांधी तथा अन्य सत्तालोलुप नेताओं द्वारा ऐसी आलोचनाएं और टिप्पणियाँ वास्तविक दोषी नही थीं, मदन लाल पाहवा जैसे युवाओं को उकसाने हेतु ?

मदनलाल पाहवा को गिरफ्तार कर लिया गया और अन्य साथियों की भी खोज की जाने लगी l

और ठीक 10 दिन बाद 30 जनवरी, 1948 को दुरात्मा गाँधी का वध किया जाता है, यहाँ एक आवश्यक प्रश्न उभर कर आता है कि यह 10 दिन के अंदर ही क्यों हुआ ? थोडा और समय भी लिया जा सकता था l परन्तु 10 दिन ही क्यों ? ऐसा कौन सा संकटकाल आने वाला था कि 10 दिन के अंदर अंदर ही मारना पड़ा ?

मैं समझता हूँ जब तक प्रश्नों का कारण से कोई अवगत न हो तब तक उसे गाँधी वध के बारे में कुछ भी कहने से स्वयं को रोकना चाहिए, और एक बार सभी तथ्यों तथा साक्षों से अवगत होकर अपना वंक्त्व्य देना चाहिए l

अंग्रेज़ जब भारत को सत्ता का हस्तांतरण सौंप कर गये तब भारत के राजकोष में 155 करोड़ रूपये छोड़ कर गये थे, जिसमे दुरात्मा गांधी की यह मांग थी कि पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपये दे दिए जाएँ l

यह 55 करोड़ और 75 करोड़ रूपये के तथ्य भी आजतक भारीयों की जानकारी से दूर रखे गये जबकि वास्तविकता यह है कि पकिस्तान को दी जाने वाली राशी जो निर्धारित हुई थी वह 55 करोड़ न होकर 75 करोड़ रूपये थी, जिसमे से 20 करोड़ का अग्रिम भुगतान पहले ही भारत सरकार द्वारा कर दिया गया था l

परन्तु 20 करोड़ का अग्रिम भुगतान करने के तुरंत बाद ही पाकिस्तान ने कबाइली आतंकवादियों की सहायता से कश्मीर पर सैन्य हमला आरम्भ किया जिसके बाद भारत सरकार ने शेष 55 करोड़ का भुगतान रोक लिया, और यह कहा गया कि पाकिस्तान पहले कश्मीर विवाद को सुलझाए क्यूंकि यह विश्वास और संदेह सबको था कि पाकिस्तान 55 करोड़ रूपये का उपयोग सैन्य क्षमता बढाने हेतु ही करेगा l

नेहरु और पटेल की असहमति के बाद क्रोधवश गांधी द्वारा हठपूर्वक आमरण अनशन करके नेहरु और सरदार पटेल पर जो राजनितिक दबाव की राजनीती खेल कर पाकिस्तान को हठपूर्वक 55 करोड़ दिलवाए गये, वह समूचे देश के नागरिकों के रक्त को उबाल गया था l
गाँधी द्वारा हठपूर्वक अनशन करके 55 करोड़ की राशि प्राप्त होने के कुछ घंटों में ही पकिस्तान ने कश्मीर पर पुन: सैनिक आक्रमण आरम्भ कर दिए l

अभी भारत सरकार कश्मीर की चुनौतियों से निपटने की रणनीति बना ही रही थी कि गांधी ने अचानक पकिस्तान जाने का निर्णय ले लिया, विश्वस्त कारण यह बताये जा रहे थे कि भारत और पाकिस्तान के बीच हुए विभाजन के बाद पाकिस्तान की नाजायज़ मांगों को मनवाने हेतु भारत सरकार के ऊपर दबाव बनाने हेतु गाँधी 7 फरवरी, 1948 को अनशन पर बैठने वाला है l यह अनशन लाहौर में होना था जो कि उस समय पाकिस्तान की राजधानी थी, इस्लामाबाद को पाकिस्तान की राजधानी बाद में बनाया गया l

यह नाजायज़ मांगें कौन सी थीं, इन पर आज तक भारत सरकार द्वारा पर्दा डाल कर रखा गया है साथ ही न्यायालय में हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे द्वारा गांधी वध हेतु गिनवाए गये 150 कारणों को भी तत्कालीन सरकार द्वारा सार्वजनिक किये जाने पर प्रतिबन्ध लगाया गया l
आखिर क्या भय था... और क्या कारण थे, इन पर से पर्दा हारना अत्यंत आवश्यक है ?

जिन्ना एक हिन्दू से मुस्लिम बने परिवार की पहली पीढ़ी का एक भाटिया राजपूत था काठियावाड़ क्षेत्र का, जिसके बाप का नाम था पुन्ना (पुंजा/पुन्ज्या) लाल ठक्कर जिन्ना ने गंधासुर को आमंत्रित किया था पाकिस्तान की यात्रा के लिए l

मुहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग ने कुछ मांगें रखी थीं, जो कि सरासर अमर्यादित और नाजायज़ थीं, और उन मांगों के पीछे इस्लामिक राष्ट्र के पैशाचिक षड्यंत्र भी थे, जिनको कि आप सबके सामने रखना अत्यंत आवश्यक है l

इन मांगों में जो सबसे विषैली मांग थी उसका आकलन आपको अत्यंत गंभीरता से करना होगा :
जिन्ना और मुस्लिम लीग ने मांग रखी कि हमें इस पाकिस्तान से उस पाकिस्तान जाने में समुद्री रस्ते से बहुत लम्बा मार्ग तय करना पड़ता है और पाकिस्तानी जनता अभी हवाई यात्रा करने में सक्षम नही है, इसलिए हमें भारत के बीचो बीच एक नया मार्ग (Corridor) बना कर दिया जाए... उसकी भी शर्तें थीं जो बहुत भयानक थीं l

1.      जो कि लाहोर से ढाका तक जाता हो अर्थात राष्ट्रीय राजमार्ग -1 (NH – 1 : Delhi - Amritsar) और राष्ट्रीय राजमार्ग -2 (NH – 2 : Delhi - Calcutta) को मिलाकर एक कर दिया जाए तत्पश्चात इसे बढ़ाकर लाहोर से ढाका तक कर दिया जाये l
2.      जो दिल्ली के पास से जाता हो ...
3.      जिसकी चौड़ाई कम से कम 10 मील की हो अर्थात 16 किलोमीटर (10 Miles = 16.0934 KM)
4.      इस 16 किलोमीटर चौड़ाई वाले गलियारे (Corridor) में बस, ट्रेन, सडक मार्ग आदि बनाने के बाद जो भी स्थान शेष बचेंगे उनमे केवल पाकिस्तानी मुसलमानों की ही बस्तियां बसाई जाएँगी l





भारतीय हिन्दुओं की तो छोडिये, उस गलियारे (Corridor) में मात्र पाकिस्तानी मुसलमान ही रहेगा भारत में रहने वाला कोई मुसलमान नही रहेगा और इस मांग का यदि गंभीरता से आकलन करें आप तो यह पाएंगे कि यह सीधा सीधा इस गलियारे के ऊपर के उत्तर भारत को पाकिस्तान के दोनों हिस्सों (पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान) से जोड़ने का षड्यंत्र था जिसको कि नाम दिया गया था मुगालिस्तान l

अमर्यादित तथा नाजायज़ मांगों की यह सूची बहुत लम्बी है, जिसका सम्पूर्ण अध्ययन करने के पश्चात आपको यह सोचने पर विवश होना पड़ेगा कि आखिर गाँधी की निष्ठा भारत के प्रति थी या पाकिस्तान के प्रति... और उसके बाद आपको भी यह कहना पड़ेगा कि दुरात्मा गांधी राष्ट्रपिता नही अपितु पाक-पिता था (पाकिस्तान का पिता ) l

समस्त जानकारियों को खोजने के लिए एक लंबा समय लगा,  परन्तु इस लम्बे समय में बहुत से तथ्य भी सामने आये जिनको देखने पर प्रथम दृष्टी में ही दुरात्मा गांधी एक कुत्सित मानसिकता का व्यक्ति लगता है कि क्यों उसने मांगों को मानने हेतु भारत सरकार पर दबाव बनाया ? क्या दुरात्मा गाँधी ने इन मांगों का विस्तृत अध्ययन भी किया था या नही ?

इसमें सबसे आश्चर्यजनक तो नगालैंड के एक दुर्गम हिस्से में नियुक्त एक जिला आयुक्त के पास जमा खुदरा रोकड़ जो कि 75 रुपए थे, उसके भी आनुपातिक विभाजन का एक रिकॉर्ड प्राप्त होता है l

प्रत्येक देश को विरासत में मिलीं रेलगाड़ियाँ तथा रेल ट्रैक और सड़क राजमार्गों के लाभ अनुपात भी विभाजित किये गये l
टेंकों का बंटवारा...
हवाई जहाज़ों का बंटवारा...
युद्ध विमानों का बंटवारा...
रेल की पटरियों का बंटवारा...
कोयला, तेल, गैस के प्राकृतिक संसाधनो में रायल्टी l

कराची और ढाका बन्दरगाहों में से एक बन्दरगाह भी भारत के भाग में आना तय किया गया था, परन्तु दुरात्मा गांधी के आदेश पर एम. सी. सीतलवाड नामक एक व्यक्ति जो कि भारत के पहला Attorny General भी नियुक्त किया गया, उसने जाकर कुछ ऐसी शर्तों पर सहमती बनाई कि भारत के हिस्से में न तो कराची का बन्दरगाह आया और न ही ढाका, क्योंकि दोनों में जो भी बन्दरगाह भारत के भाग में आता, उससे पाकिस्तान के नक्शे भारी परिवर्तन होता l

कराची जो कि पाकिस्तान का व्यावसायिक केंद्र था, और मुंबई (Bombay) भारत का, दोनों की शहरों की चल तथा अचल सम्पत्तियों में जमीन आसमान का अंतर था उसे भी गांधी ने बराबर करने को कहा, उदाहरणार्थ यदि मुंबई का मूल्यांकन 1000 रूपये हो और कराची का 25 रूपये तो कराची को 500 रूपये के लगभग दिए जायें, जिससे कि दोनों शहरों को बराबर किया जा सके l
जबकि इसके विपरीत लाहौर के एक शीर्ष पुलिस अधिकारी ने पुलिस विभाग का विभाजन आधा आधा बाँट दिया हिन्दू अधिकारी और मुस्लिम अधिकारी के बीच, जिसमे लाठियां, राइफलें, वर्दी, जूते आदि शामिल थे l

लाहौर स्थित पंजाब सरकार के पुस्तकालय में जो Encyclopedia Britannica की एक प्रति थी उसे धार्मिक आधार पर विभाजित कर के दोनों देशों को आधा-आधा दे दिया गया l पुस्तकालय की पुस्तकें जो भारत भेजने पर सहमती बनाई गई, उन्हें भेजते समय अधिकाँश बहुमूल्य ग्रन्थ, पुस्तकें, अभिलेख आदि नष्ट कर दिए गये l


सबसे हास्यापद तो यह तथ्य सामने आया कि अंग्रेजी शब्दकोश की एक डिक्शनरी को फाड़ कर दो भागों में विभाजित कर दिया गया, A-K शब्दकोश भारत भेजे गये और बाकी पाकिस्तान में रखे गये l

मुस्लिम शराब व्यापारियों को भारत में रहने को कहा गया, क्योंकि इस्लाम में शराब हराम है, परन्तु पाकिस्तान की बेशर्मी देखिये कि इन शराब कि फेक्टरियों का मुआवजा भी माँगा और भविष्य में होने वाले लाभ में हिसा भी l

भारत सरकार के पास एक सरकारी मुद्रा छपने की मशीन थी जिसे देने से भारत सरकार ने स्पष्ट मना कर दिया था l

भारत के वायसराय के पास दो शाही गाड़ियां थीं जिसमे से एक सोने की थी और एक चांदी की थी, दोनों पर विवाद हुआ तो लार्ड माउन्टबेटन के सैन्यादेशवाहक (ADC means Aide-de-camp) ने सिक्का उछाल कर निर्णय किया तो सोने की गाड़ी भारत के हिस्से में आई l वायसराय की साज सज्जा के सामान, कवच, चाबुक, वर्दियां आदि सब बराबर बराबर बाँट ली गई l

अंत में वायसराय के सामान में एक भोंपू (तुरही) शेष बची, जो कि विशेष आयोजनों में बजाने हेतु उपयोग में लाई जाती थी, अब यदि उसे आधा आधा बाँट दिया जाए तो किसी काम का नही और एक देश को देने पर विवाद होना तय था, तो अंत में उसे ADC ने ही अपने पास एक यादगार के रूप में रख लिया l  

जनसंख्या के आधार पर हुए इस विभाजन के आधार पर आकलन करें तो समस्त चल और अचल परिसंपत्तियों में भारत की हिस्सेदारी 82.5% थी, और पाकिस्तान 17.5% की हिस्सेदारी थी, जिसमे रल संपत्ति, मुद्रित मुद्रा भंडार, सिक्के, डाक और राजस्व टिकटें, सोने के भंडार और भारतीय रिजर्व बैंक की संपत्ति भी शामिल है।

सभी चल और अचल संपत्ति में से भारत और पाकिस्तान के बीच का अनुपात 80-20 में निर्धारित होने की सहमती बनने का अनुमान था, पाकिस्तान ने बेशर्मी की समस्त हदें पार करते हुए मांगें रखीं जिसमे मेज, कुर्सियां, स्टेशनरी, बिजली के बल्ब, स्याही बर्तन, झाडू और सोख्ता कागज (InkPads) का भी विभाजन किया जाना था l

उपरोक्त समस्त सन्दर्भों तथा तथ्यों का आकलन करने पर एक मूल प्रश्न खड़ा होता है कि यदि उपरोक्त वर्णित अनुपात के रूप में पाकिस्तान को 75 करोड़ रुपए देने के लिए दुरात्मा गांधी दबाव बना रहा था तो उस अनुपात की दृष्टि से भारत के लिए कितना कोष बनता था... उत्तर मिलेगा 470 करोड़ रुपए l

जबकि अंग्रेज भारत के राजकोष में मात्र 155 करोड़ रूपये छोड़ कर गये थे, शेष धन गांधी ने अंग्रेजों से क्यों नही माँगा ?


इन अमर्यादित तथा नाजायज़ मांगों के प्रति तत्कालीन भारत सरकार ने नाराजगी प्रस्तुत की और और सरदार पटेल ने मांगें मांगने से स्पष्ट मन कर दिया जिसके कारण दुरात्मा गाँधी ने पाकिस्तान जाकर हठपूर्वक आमरण अनशन करने की जिन्ना के सुझाव को स्वीकार किया जिससे कि यह विवाद अंतर्राष्ट्रीय विवाद का रूप ले तथा भारत सरकार पर दबाव बना कर अमर्यादित तथा नाजायज़ मांगों को स्वीकार करवाया जा सके l

यहाँ मैं यह कहने में मुझे कोई झिझक नही है कि श्री मदन लाल पाहवा, श्री नथुराम गोडसे, श्री नारायण आप्टे, श्री विष्णु करकरे, श्री गोपाल गोडसे आदि ने कोई अपराध नही किया अपितु राष्ट्रभक्ति की भावना से ओतप्रोत होकर उन अमर्यादित तथा नाजायज़ मांगों को रुकवाया जिन्हें रुकवा पाने में स्वयं नेहरु और पटेल भी असमर्थ थे l

गांधी वध के अंतिम दिनों के बार में भी यदि हम आकलन करेंगे तो पायेंगे कि 20 जनवरी, 1948 के बम फेंकने के प्रकरण के बाद बिरला हॉउस की सुरक्षा बढाने के स्थान पर घटा दी गई थी, जिससे यह पक्ष उजागर होता है कि नेहरु सरकार उस समय गांधी वध के खतरे को समझते हुए भी इस महान कार्य को होने देना चाहती थी l

परन्तु आखिर 10 दिन ही क्यों ...
जबकि उस समय न इंटरनेट था, न मोबाइल, न ही पेजर, न ही फैक्स आदि की सुविधायें थीं अर्थात संचार माध्यम इतने विकसित नही थे, और 20 जनवरी के असफल प्रयास के बाद छिपने के स्थान पर 10 दिन के अंदर ही अंदर ट्रेनों में घूम कर स्वयं को छिपाना, सुरक्षित रखना और नई योजना बना कर संसाधन एकत्रित करके पुन: मात्र 10 दिन में ही क्यों गांधी वध की योजना को पूर्ण किया गया... जबकि आज भी यदि ऐसा कोई प्रयास असफल हो जाये तो स्वयं को छिपाने हेतु व्यक्ति कम से कम 6 महीने से एक वर्ष का समय ले लेता है... आखिर ऐसा क्या संकटकाल था ?


संकटकाल यही था कि 3 फरवरी, 1948 को गांधी लाहौर जा रहा था, और 7 फरवरी 1948 को वह लाहौर में हठपूर्वक आमरण अनशन भारत सरकार पर दबाव बना कर अमर्यादित तथा नाजायज़ मांगों को स्वीकार करवाने के राष्ट्रद्रोही दुष्कृत्य को रोका जा सके l

अन्यथा चल-अचल सम्पत्ति तो जो जाती सो जाती साथ ही सम्पूर्ण उत्तर भारत के मुग्लिस्तान बनाये जाने हेतु इस्लामीकरण का खतरा भी बढ़ जाता l

शुक्रवार, 30 जनवरी 1948, की शाम को बिरला हॉउस में जब गांधी शाम की प्रार्थना सभा हेतु जा रहा था, तो सबकी योजना यह थी कि जब गाँधी प्रार्थना सभा से लौटेगा तो उस समय उसे गोली मारी जाएगी, परन्तु इसके विपरीत हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे ने आदमी शौर्य का साहस देते हुए एक साहसिक निर्णय लिया कि बाद में न जाने अवसर प्राप्त हो या न हो, अभी अवसर है तो योजना को अभी पूर्ण कर दिया जाए, और यही सोचकर उन्होंने तुरंत आगे चल रहे गांधी को तेज़ कदमों से पार किया और आगे बढ़कर गांधी के सीने में अपनी बरेटा रिवोल्वर से गोलियां ठोंक कर एक ... नर-पिशाच दुरात्मा मोहनदास करमचन्द ग़ाज़ी का वध किया l

इसे हत्या का नाम देना मर्यादा के विपरीत होगा, इसे वध ही कहा जायेगा, The Righteous Killing,

गांधी वध के पश्चात हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे, नारायण आप्टे तथा विष्णु करकरे वहां से भागे नही, और न ही पुलिस जांच तथा न्यायालय में कभी भी किसी ने गाँधी वध के आरोप को अस्वीकार किया जो कि एक आदमी शौर्य की वीरगाथा की अनुभूति करवाते हैं l

आज भारत के नागरिक या सम्पूर्ण विश्व के नागरिक जो हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे तथा नारायण आप्टे को हत्यारा कह कर सम्बोधित करते हैं उन्हिएँ आवश्यकता है समस्त तथ्यों तथा सन्दर्भों से परिचित होकर इनका आकलन करने की l

कम से कम उत्तर भारत के समस्त राज्यों के निवासियों को तो यह समझना चहिये कि हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे, नारायण आप्टे, मदनलाल पाहवा, विष्णु करकरे, गोपाल गोडसे आदि द्वारा किये गये इस पवित्र कार्य से वे सब मुस्लिम होने से बच गये, अन्यथा जिस प्रकार पकिस्तान में फंसे बड़े बड़े धनवान, बलवान हिन्दू भी मुसलमान हो गये आज उसी भाँती उत्तर भारत के राज्यों के निवासियों का भी इस्लामीकरण तलवार की नोक पर कर दिया जाना था l

अयोध्या, काशी, मथुरा, हरिद्वार, ऋषिकेश आदि की परिस्थिति आज कुछ और ही होतीं l
गाँधी वध से संबंधित इन मूल कारणों की अज्ञानता ही प्रमुख कारण है कि आज भी हुतात्मा पंडित नाथूराम गोडसे का चरित्र चित्रण एक हत्यारे की भांति किया जाता है l

न्याय व्यवस्था और संविधान का गठन इस हेतु किया जाता है कि नागरिकों को कठोर कानूनों से भी उत्पन्न हो और जो उसके बावजूद भी छोटे अपराध, बड़े अपराध करे उसे उसके अनुसार दंड मिले, छोटा दंड छोड़ी सज़ा, बड़ा दंड बड़ी सज़ा l

प्राचीन भारत की न्याय व्यवस्था तथा ऋषियों द्वारा निर्मित दंड संहिताओं का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि न्याय की मूल भावना होनी चाहिए कि...
1. नागरिकों को अपराध प्रवृत्ति से दूर रखा जाये l
2. अपराधी को दंड देने के बाद पुन: समाज में आम नागरिक का सम्मान प्राप्त हो l


परन्तु गाँधी वध हेतु दोषी पाए जाने पर भारतीय न्याय व्यवस्था द्वारा जो मृत्यु दंड हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे को दिया गया उसके बाद भारतीय जनता को इस प्रकार पढ़ाया लिखाया गया कि आज तक हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे को अपराध मुक्त नही किया जा सका और उन्हें एक हत्यारे के रूप में ही लिखाया पढ़ाया गया l यह एक बहुत बड़ी विडम्बना है l

गान्धी-वध के न्यायिक अभियोग के समय न्यायमूर्ति जी.डी.खोसला से नाथूराम गोडसे ने अपना वक्तव्य स्वयं पढ़ कर सुनाने की अनुमति माँगी थी और उसे यह अनुमति मिली थी। नाथूराम गोडसे का यह न्यायालयीन वक्तव्य भारत सरकार द्वारा प्रतिबन्धित कर दिया गया था। 

इस प्रतिबन्ध के विरुद्ध नाथूराम गोडसे के भाई तथा गान्धी-वध के सह-अभियुक्त गोपाल गोडसे ने कई वर्षों तक न्यायिक लडाई लड़ी और उसके फलस्वरूप सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रतिबन्ध को हटा लिया तथा उस वक्तव्य के प्रकाशन की अनुमति दी। नाथूराम गोडसे ने न्यायालय के समक्ष गान्धी-वध के जो 150 कारण बताये थे उनमें से प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं: -

1.      अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ गोली काण्ड (1919) से समस्त देशवासी आक्रोश में थे तथा चाहते थे कि इस नरसंहार के नायक जनरल डायर पर अभियोग चलाया जाये। गान्धी ने भारतवासियों के इस आग्रह को समर्थन देने से स्पष्ठ मना कर दिया।

2.      भगत सिंह व उसके साथियों के मृत्युदण्ड के निर्णय से सारा देश क्षुब्ध था व गान्धी की ओर देख रहा था, कि वह हस्तक्षेप कर इन देशभक्तों को मृत्यु से बचायें, किन्तु गान्धी ने भगत सिंह की हिंसा को अनुचित ठहराते हुए जनसामान्य की इस माँग को अस्वीकार कर दिया।

3.      6 मई, 1946 को समाजवादी कार्यकर्ताओं को दिये गये अपने सम्बोधन में गान्धी ने मुस्लिम लीग की हिंसा के समक्ष अपनी आहुति देने की प्रेरणा दी।

4.      मोहम्मद अली जिन्ना आदि राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं के विरोध को अनदेखा करते हुए 1921 में गान्धी ने खिलाफ़त आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की। तो भी केरल के मोपला मुसलमानों द्वारा वहाँ के हिन्दुओं की मारकाट की जिसमें लगभग 1500 हिन्दू मारे गये व 2000 से अधिक को मुसलमान बना लिया गया। गान्धी ने इस हिंसा का विरोध नहीं किया, वरन् खुदा के बहादुर बन्दों की बहादुरी के रूप में वर्णन किया।

5.      1926 में आर्य समाज द्वारा चलाए गए शुद्धि आन्दोलन में लगे स्वामी श्रद्धानन्द की अब्दुल रशीद नामक मुस्लिम युवक ने हत्या कर दी, इसकी प्रतिक्रियास्वरूप गान्धी ने अब्दुल रशीद को अपना भाई कह कर उसके इस कृत्य को उचित ठहराया व शुद्धि आन्दोलन को अनर्गल राष्ट्र-विरोधी तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिये अहितकारी घोषित किया।

6.      गान्धी ने अनेक अवसरों पर शिवाजी एवं महाराणा प्रताप को पथभ्रष्ट कहा।

7.      गान्धी ने जहाँ एक ओर कश्मीर के हिन्दू राजा हरि सिंह को कश्मीर मुस्लिम बहुल होने से शासन छोड़ने व काशी जाकर प्रायश्चित करने का परामर्श दिया, वहीं दूसरी ओर हैदराबाद के निज़ाम के शासन का हिन्दू बहुल हैदराबाद में समर्थन किया।

8.      यह गान्धी ही थे जिन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना को कायदे-आज़म की उपाधि दी।

9.      कांग्रेस के ध्वज निर्धारण के लिये बनी समिति (1931) ने सर्वसम्मति से चरखा अंकित भगवा वस्त्र पर निर्णय लिया किन्तु गान्धी की जिद के कारण उसे तिरंगा कर दिया गया।

10.  कांग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को बहुमत से काँग्रेस अध्यक्ष चुन लिया गया किन्तु गान्धी पट्टाभि सीतारमय्या का समर्थन कर रहे थे, अत: सुभाष बाबू ने निरन्तर विरोध व असहयोग के कारण पद त्याग दिया।

11.  लाहौर कांग्रेस में वल्लभभाई पटेल का बहुमत से चुनाव सम्पन्न हुआ किन्तु गान्धी की जिद के कारण यह पद जवाहरलाल नेहरु को दिया गया।

12.  14-15 जून, 1947 को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में भारत विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था, किन्तु गान्धी ने वहाँ पहुँच कर प्रस्ताव का समर्थन करवाया। यह भी तब जबकि उन्होंने स्वयं ही यह कहा था कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा।

13.  जवाहरलाल की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल ने सोमनाथ मन्दिर का सरकारी व्यय पर पुनर्निर्माण का प्रस्ताव पारित किया, किन्तु गान्धी जो कि मन्त्रीमण्डल के सदस्य भी नहीं थे; ने सोमनाथ मन्दिर पर सरकारी व्यय के प्रस्ताव को निरस्त करवाया और 13 जनवरी 1948 को आमरण अनशन के माध्यम से सरकार पर दिल्ली की मस्जिदों का सरकारी खर्चे से पुनर्निर्माण कराने के लिए दबाव डाला।

14.  पाकिस्तान से आये विस्थापित हिन्दुओं ने दिल्ली की खाली मस्जिदों में जब अस्थाई शरण ली तो गान्धी ने उन उजड़े हिन्दुओं को जिनमें वृद्ध, स्त्रियाँ व बालक अधिक थे मस्जिदों से खदेड़ बाहर ठिठुरते शीत में रात बिताने पर मजबूर किया गया।

15.  22 अक्टूबर, 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया, उससे पूर्व माउण्टबैटन ने भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को 55 करोड़ रुपये की राशि देने का परामर्श दिया था। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने आक्रमण के दृष्टिगत यह राशि देने को टालने का निर्णय लिया किन्तु गान्धी ने उसी समय यह राशि तुरन्त दिलवाने के लिए आमरण अनशन शुरू कर दिया जिसके परिणामस्वरूप यह राशि पाकिस्तान को भारत के हितों के विपरीत दे दी गयी।


नाथूराम गोडसे को सह-अभियुक्त नारायण आप्टे के साथ 15 नवम्बर, 1949 को पंजाब की अम्बाला जेल में फाँसी पर लटका कर मार दिया गया। उन्होंने अपने अन्तिम शब्दों में कहा था:

    "यदि अपने देश के प्रति भक्तिभाव रखना कोई पाप है तो मैंने वह पाप किया है और यदि यह पुण्य है तो उसके द्वारा अर्जित पुण्य पद पर मैं अपना नम्र अधिकार व्यक्त करता हूँ l मुझे विश्वास है कि मनुष्योँ द्वारा स्थापित न्यायालय के ऊपर यदि कोई न्यायालय है, तो उसमेँ मेरे कार्य को अपराध नहीँ समझा जाएगा, मैंने देश और जाति की भलाई हेतु यह पुण्य  किया। " 
                                                                                                 – नाथूराम विनायक गोडसे

हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे जी की अंतिम इच्छा आप सबके समक्ष रख रहा हूँ :


मेरी अस्थियाँ पवित्र सिन्धु नदी में ही उस दिन प्रवाहित करना जब सिन्धु नदी एक स्वतन्त्र नदी के रूप में भारत के झंडे तले बहने लगे, भले ही इसमें कितने भी वर्ष लग जायें, कितनी ही पीढ़ियाँ जन्म लें, लेकिन तब तक मेरी अस्थियाँ विसर्जित न करना…”
प्रतीक्षारत हैं एक राष्ट्रभक्त की अस्थियाँ... मुक्ति हेतु ...






जय जय श्री राम कृष्ण परशुराम


Wednesday 28 January 2015

The Untold Story & Glory of Pushyamitra Shung



सनातन धर्म का रक्षक महान सम्राट पुष्यमित्र शुंग।



मोर्य वंश के महान सम्राट चन्द्रगुप्त के पौत्र महान अशोक  ने कलिंग युद्ध के पश्चात् बौद्ध धर्म अपना लिया। अशोक अगर राजपाठ छोड़कर बौद्ध भिक्षु बनकर धर्म प्रचार में लगता तब वह वास्तव में महान होता । परन्तु अशोक ने एक बौध सम्राट के रूप में लग भाग २० वर्ष तक शासन किया।

आचार्य चाणक्य ने भी जिस अखंड भारत के निर्माण हेतु आजीवन संघर्ष किया उसका लाभ भी सनातन धर्म को न मिल पाया, आचार्य चाणक्य जीवन भर चन्द्र्गुप्य मौर्य को संचालित करते रहे, परन्तु आचार्य चाणक्य के स्वर्गवास के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य जैन बन गया, और जैन सम्प्रदाय के प्रचार प्रसार में ही जीवन व्यतीत किया, अंत में संथारा करके मृत्यु को प्राप्त हुआ ।

चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र बिन्दुसार हुआ जो आगे जाकर मखली गौशाल नामक व्यक्ति द्वारा स्थापित आजीविक सम्प्रदाय में दीक्षित हुआ, आजीविक सम्प्रदाय भी पूर्णतया वेद-विरोधी था, अर्थात बिन्दुसार ने भी आजीवन आजीविक सम्प्रदाय के प्रचार प्रसार हेतु ही सारा जीवन लगाया ।

बिन्दुसार के बाद उसका पुत्र चंड-अशोक गद्दी पर बैठा, जिसने वैदिक धर्म पर अधिक से अधिक प्रतिबंध लगाए, यज्ञों पर प्रतिबन्ध लगाये, गुरुकुलों को बोद्ध-विहार में परिवर्तित किया, मन्दिरों को नष्ट किया, शास्त्रों में हेर-फेर भी करवाए, अधिक से अधिक सनातन धर्मियों को बोद्ध सम्प्रदाय में तलवार के जोर पर और धन आदि का लालच देकर भी बोद्ध सम्प्रदाय की जनसंख्या बढाई ।

अहिंसा के पथ पर भी अशोक को वास्तविकता और आवश्यकता से कहीं अधिक बढ़ा चढ़ा कर महिमामंडित किया गया, जबकि अशोक की हिंसा और अहिंसा के सत्य का एक पहलु तो यह भी है कि अशोक के जन्मदिवस पर एक बार एक जैन आचार्य ने अशोक को एक चित्र भेंट किया जिसमे महात्मा बुद्ध को जैन महावीर के चरण स्पर्श करते हुए दिखाया गया, क्रोधवश छद्म अहिंसावादी चंड अशोक ने 3 दिन के भीतर ही 14000 जैन आचार्यों की हत्या करवाई ।

अहिंसा का पथ यह भी कैसा कि कलिंग विजय के बाद शस्त्र त्याग दिया, यह तो कुछ ऐसी बात हुई कि आपने कोई परीक्षा देते हुए सभी प्रश्नों के उत्तर लिख दिए अब आप कह रहे हैं कि मैं आगे किसी भी प्रश्न का उत्तर नही लिखूंगा... जीवनभर हिंसा करके अंतिम अविजित स्थान पर विजय पाकर आपने शस्त्र त्यागे और उसे त्याग की परिभाषा दी जाती है ।

अहिंसा का पथ अपनाते हुए उसने पूरे शासन तंत्र को बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार में लगा दिया। अत्यधिक अहिंसा के प्रसार से भारत की वीर भूमि बौद्ध भिक्षुओ व बौद्ध मठों का गढ़ बन गई थी। 

उससे भी आगे जब मोर्य वंश का नौवा अन्तिम सम्राट बृहदरथ मगध की गद्दी पर बैठा ,तब उस समय तक आज का अफगानिस्तान, पंजाब व लगभग पूरा उत्तरी भारत बौद्ध बन चुका था ।

जब सिकंदर व सैल्युकस जैसे वीर भारत के वीरों से अपना मान मर्दन करा चुके थे, तब उसके लगभग ९० वर्ष पश्चात् जब भारत से बौद्ध धर्म की अहिंसात्मक निति के कारण वीर वृत्ति का लगभग ह्रास हो चुका था, ग्रीकों ने सिन्धु नदी को पार करने का साहस दिखा दिया।

सम्राट बृहदरथ के शासनकाल में ग्रीक शासक MENINDER जिसको बौद्ध साहित्य में मिलिंद और मनिन्द्र कहा गया है ,ने भारत वर्ष पर आक्रमण की योजना बनाई। मिनिंदर ने सबसे पहले बौद्ध धर्म के धर्म गुरुओं से संपर्क साधा,और उनसे कहा कि अगर आप भारत विजय में मेरा साथ दें तो में भारत विजय के पश्चात् में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लूँगा।

बौद्ध गुरुओं ने राष्ट्र द्रोह किया तथा भारत पर आक्रमण के लिए एक विदेशी शासक का साथ दिया।
सीमा पर स्थित बौद्ध मठ राष्ट्रद्रोह के अड्डे बन गए। बोद्ध भिक्षुओ का वेश धरकर मिनिंदर के सैनिक मठों में आकर रहने लगे। हजारों मठों में सैनिकों के साथ साथ हथियार भी छुपा दिए गए।
(जैसे कि आजकल के मस्जिद-मदरसों में हो रहा है)

दूसरी तरफ़ सम्राट बृहदरथ की सेना का एक वीर सैनिक पुष्यमित्र शुंग अपनी वीरता व साहस के कारण मगध कि सेना का सेनापति बन चुका था ।

बौद्ध मठों में विदेशी सैनिको का आगमन उसकी नजरों से नही छुपा । पुष्यमित्र ने सम्राट से मठों कि तलाशी की आज्ञा मांगी। परंतु बौद्ध सम्राट बृहदरथ ने मना कर दिया।
(आजकल की सरकारें भी ऐसा नही होने देतीं)


किंतु राष्ट्रभक्ति की भावना से ओत प्रोत सेनापति पुष्यमित्र शुंग, सम्राट की आज्ञा का उल्लंघन करके बौद्ध मठों की तलाशी लेने पहुँच गया।

मठों में स्थित सभी विदेशी सैनिको को पकड़ लिया गया,तथा उनको यमलोक पहुँचा दिया गया,और उनके हथियार कब्जे में कर लिए गए। राष्ट्रद्रोही बौद्धों को भी गिरफ्तार कर लिया गया। परन्तु वृहद्रथ को यह बात अच्छी नही लगी।


पुष्यमित्र जब मगध वापस आया तब उस समय सम्राट सैनिक परेड की जाँच कर रहा था। सैनिक परेड के स्थान पर ही सम्राट व पुष्यमित्र शुंग के बीच बौद्ध मठों को लेकर कहासुनी हो गई।

सम्राट बृहदरथ ने पुष्यमित्र पर हमला करना चाहा परंतु पुष्यमित्र ने पलटवार करते हुए सम्राट का वद्ध कर दिया।

वैदिक सैनिको ने पुष्यमित्र का साथ दिया तथा पुष्यमित्र को मगध का सम्राट घोषित कर दिया।

सबसे पहले मगध के नए सम्राट पुष्यमित्र ने राज्य प्रबंध को प्रभावी बनाया, तथा एक सुगठित सेना का संगठन किया। पुष्यमित्र ने अपनी सेना के साथ भारत के मध्य तक चढ़ आए मिनिंदर पर आक्रमण कर दिया। भारतीय वीर सेना के सामने ग्रीक सैनिको की एक न चली।

मिनिंदर की सेना पीछे हटती चली गई । पुष्यमित्र शुंग ने पिछले सम्राटों की तरह कोई गलती नही की तथा ग्रीक सेना का पीछा करते हुए उसे सिन्धु पार धकेल दिया। इसके पश्चात् ग्रीक कभी भी भारत पर आक्रमण नही कर पाये।

सम्राट पुष्य मित्र ने सिकंदर के समय से ही भारत वर्ष को परेशानी में डालने वाले ग्रीको का समूल नाश ही कर दिया।


बौद्ध धर्म के प्रसार के कारण वैदिक सभ्यता का जो ह्रास हुआ, पुन: ऋषिओं के आशीर्वाद से जाग्रत हुआ।

भय से बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाले पुन: वैदिक धर्म में लौट आए। कुछ बौद्ध ग्रंथों में लिखा है की पुष्यमित्र ने बौद्दों को सताया, किंतु यह पूरा सत्य नही है। सम्राट ने उन राष्ट्रद्रोही बौद्धों को सजा दी, जो उस समय ग्रीक शासकों का साथ दे रहे थे।






उपरोक्त चित्र भारत में कई स्थानों पर पाए जाते हैं जो कि तत्कालीन वैदिक धर्मावलम्बियों द्वारा बोद्ध धर्म पर विजय के रूप में स्थापित किये गये, जिसमे बोद्ध सम्प्रदाय का प्रतीक हाथी है जिस पर सनातन धर्म का प्रतीक सिंह विजय प्राप्त करके उसे नियंत्रित करता हुआ दिखाई दे रहा है ।

पुष्यमित्र ने जो वैदिक धर्म की पताका फहराई उसी के आधार को सम्राट विक्रमादित्य व आगे चलकर गुप्त साम्राज्य ने इस धर्म के ज्ञान को पूरे विश्व में फैलाया।

सम्राट विक्रम ने रोम के शासक जुलियस सीजर (Julius Ceajar) को भी हराकर उसे बंदी बनाकर उज्जेन की सड़कों पर घुमाया था ।

सम्राट विक्रम ने रोम के शासक जुलियस सीजर को भी हराकर उसे बंदी बनाकर उज्जेन की सड़कों पर घुमाया था ।

टिपण्णी यह है कि ---

कालिदास-ज्योतिर्विदाभरण-अध्याय२२-ग्रन्थाध्यायनिरूपणम्-
श्लोकैश्चतुर्दशशतै सजिनैर्मयैव ज्योतिर्विदाभरणकाव्यविधा नमेतत् ॥ᅠ२२.६ᅠ॥
विक्रमार्कवर्णनम्-वर्षे श्रुतिस्मृतिविचारविवेकरम्ये श्रीभारते खधृतिसम्मितदेशपीठे।
मत्तोऽधुना कृतिरियं सति मालवेन्द्रे श्रीविक्रमार्कनृपराजवरे समासीत् ॥ᅠ२२.७ᅠ॥
नृपसभायां पण्डितवर्गा-शङ्कु सुवाग्वररुचिर्मणिरङ्गुदत्तो जिष्णुस्त्रिलोचनहरो घटखर्पराख्य।
अन्येऽपि सन्ति कवयोऽमरसिंहपूर्वा यस्यैव विक्रमनृपस्य सभासदोऽमो ॥ᅠ२२.८ᅠ॥
सत्यो वराहमिहिर श्रुतसेननामा श्रीबादरायणमणित्थकुमारसिंहा।
श्रविक्रमार्कंनृपसंसदि सन्ति चैते श्रीकालतन्त्रकवयस्त्वपरे मदाद्या ॥ᅠ२२.९ᅠ॥
नवरत्नानि-धन्वन्तरि क्षपणकामरसिंहशङ्कुर्वेतालभट्टघटखर्परकालिदासा।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपते सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥ᅠ२२.१०ᅠ॥
यो रुक्मदेशाधिपतिं शकेश्वरं जित्वा गृहीत्वोज्जयिनीं महाहवे।
आनीय सम्भ्राम्य मुमोच यत्त्वहो स विक्रमार्कः समसह्यविक्रमः ॥ २२.१७ ॥
तस्मिन् सदाविक्रममेदिनीशे विराजमाने समवन्तिकायाम्।
सर्वप्रजामङ्गलसौख्यसम्पद् बभूव सर्वत्र च वेदकर्म ॥ २२.१८ ॥
शङ्क्वादिपण्डितवराः कवयस्त्वनेके ज्योतिर्विदः सभमवंश्च वराहपूर्वाः।
श्रीविक्रमार्कनृपसंसदि मान्यबुद्घिस्तत्राप्यहं नृपसखा किल कालिदासः ॥ २२.१९ ॥
काव्यत्रयं सुमतिकृद्रघुवंशपूर्वं पूर्वं ततो ननु कियच्छ्रुतिकर्मवादः।
ज्योतिर्विदाभरणकालविधानशास्त्रं श्रीकालिदासकवितो हि ततो बभूव ॥ २२.२० ॥
वर्षैः सिन्धुरदर्शनाम्बरगुणैर्याते कलौ सम्मिते, मासे माधवसंज्ञिके च विहितो ग्रन्थक्रियोपक्रमः।
नानाकालविधानशास्त्रगदितज्ञानं विलोक्यादरा-दूर्जे ग्रन्थसमाप्तिरत्र विहिता ज्योतिर्विदां प्रीतये ॥ २२.२१ ॥


ज्योतिर्विदाभरण की रचना ३०६८ कलि वर्ष (विक्रम संवत् २४) या ईसा पूर्व ३३ में हुयी। विक्रम सम्वत् के प्रभाव से उसके १० पूर्ण वर्ष के पौष मास से जुलिअस सीजर द्वारा कैलेण्डर आरम्भ हुआ, यद्यपि उसे ७ दिन पूर्व आरम्भ करने का आदेश था।

विक्रमादित्य ने रोम के इस शककर्त्ता को बन्दी बनाकर उज्जैन में भी घुमाया था (७८ इसा पूर्व में) तथा बाद में छोड़ दिया।।

इसे रोमन लेखकों ने बहुत घुमा फिराकर जलदस्युओं द्वारा अपहरण बताया है तथा उसमें भी सीजर का गौरव दिखाया है कि वह अपना अपहरण मूल्य बढ़ाना चाहता था।

इसी प्रकार सिकन्दर की पोरस (पुरु वंशी राजा) द्वारा पराजय को भी ग्रीक लेखकों ने उसकी जीत बताकर उसे क्षमादान के रूप में दिखाया है।


विकिपीडिया साईट पर इसका एक सन्दर्भ है जो आपके सामने प्रस्तुत किया जा रहा है...

Gaius Julius Caesar (13 July 100 BC – 15 March 44 BC) --- In 78 BC,
--- On the way across the Aegean Sea, Caesar was kidnapped by pirates
and held prisoner. He maintained an attitude of superiority throughout
his captivity. When the pirates thought to demand a ransom of twenty
talents of silver, he insisted they ask for fifty. After the ransom
was paid, Caesar raised a fleet, pursued and captured the pirates, and
imprisoned them. He had them crucified on his own authority.

Quoted from History of the Calendar, by M.N. Saha and N. C. Lahiri
(part C of the Report of The Calendar Reforms Committee under Prof. M.
N. Saha with Sri N.C. Lahiri as secretary in November 1952-Published
by Council of Scientific & Industrial Research, Rafi Marg, New
Delhi-110001, 1955, Second Edition 1992.
Page, 168-last para-“Caesar wanted to start the new year on the 25th
December, the winter solstice day. But people resisted that choice
because a new moon was due on January 1, 45 BC. And some people
considered that the new moon was lucky. Caesar had to go along with
them in their desire to start the new reckoning on a traditional lunar
landmark.”


ज्योतिर्विदाभरण की कहानी ठीक होने के कई अन्य प्रमाण हैं-सिकन्दर के बाद सेल्युकस्, एण्टिओकस् आदि ने मध्य एसिआ में अपना प्रभाव बढ़ाने की बहुत कोशिश की, पर सीजर के बन्दी होने के बाद रोमन लोग भारत ही नहीं, इरान, इराक तथा अरब देशों का भी नाम लेने का साहस नहीं किये। केवल सीरिया तथा
मिस्र का ही उल्लेख कर संतुष्ट हो गये। यहां तक कि सीरिया से पूर्व के किसी राजा के नाम का उल्लेख भी नहीं है।

बाइबिल में लिखा है कि उनके जन्म के समय मगध के २ ज्योतिषी गये थे जिन्होंने ईसा के महापुरुष होने की भविष्यवाणी की थी। सीजर के राज्य में भी विक्रमादित्य के ज्योतिषियों की बात प्रामाणिक मानी गयी।


और इन बातों को Ignore करने वाले सनातनधर्मियों हेतु डा. एनी बेसेंट के विचार 

हिन्दू धर्म के बिना भारत का कोई भविष्य नहीं है . -डॉ० एनी बेसेंट का
हिन्दू धर्म को कोसने वालों के मूह पर तमाचा


भूलिये नहीं !
सनातन धर्म के बिना भारत का कोई भविष्य नहीं है। सनातन धर्म वह भूमि है जिसमे भारत की जड़े गहरी जमी हुई हैं और यदि इस भूमि से इसे उखाड़ा गया तो भारत वैसे ही सूख जायेगा जैसे कोई वृक्ष भूमि से उखाड़ने पर सूख जाता है।

भारत में अनेक मत,संप्रदाय और वंशों के लोग पनप रहे हैं, किन्तु उनमे से कोई भी न तो भारत के अतीत के उषा काल में था, न उनमे कोई राष्ट्र के रूप में उसके स्थायित्व के लिए अनिवार्यत: आवयशक है।


यदि आप सनातन धर्म छोड़ते है तो आप अपनी भारत माता के ह्रदय में छुरा घोंपते हैं।यदि भारत माता के जीवन-रक्त स्वरुप सनातन धर्म निकल जाता है तो माता गत-प्राण हो जाएगी। आर्य जाती की यह माता ,यह पद्भ्रष्ट जगत-सम्राज्ञी पहले ही आहत क्षत-विक्षत, विजित और अवनत हुई है। किन्तु सनातन धर्म उसे जीवित रखे हुए है, अन्यथा उसकी गणना मतों में हुई होती।

यदि आप अपने भविष्य को मूल्यवान समझते हैं, अपनी मात्रभूमि से प्रेम करते हैं,तो अपने प्राचीन धर्म की अपनी पकड़ को छोडिये नहीं,उस निष्ठां से अलग मत होइए जिस पर भारत के प्राण निर्भर हैं।

सनातन धर्म के अतिरिक्त अन्य किसी मत की रक्त -वाहिनिया ऐसी स्वर्ण सी,ऐसी अमूल्य नहीं हैं,जिनमे आध्यात्मिक जीवन का रक्त प्रवाहित किया जा सके। परन्तु एक धोखा है...

-- एक वास्तविक और भारी धोखा  कि भारत से कभी सनातन धर्म का लोप न हो जाए,
नए-पुराने के झगडे में कहीं सनातन धर्म ही नष्ट न हो जाए। यदि सनातन धर्मी ही सनातन धर्म को न बचा सके तो और कोन बचाएगा ?

यदि भारत की संतान अपने धर्म पर अडिग नहीं रही तो कोन उस धर्म की रक्षा करेगा ?

भारत और सनातन धर्म एक रूप हैं। मै यह कार्य भार आपको दे  रही हूँ, कि सनातन धर्म के प्रति निष्ठावान रहो, वही आपका सच्चा जीवन है। कोई भ्रष्ट मत या विकृत धर्म अपने कलंकित हाथों से आपको सोंपी गयी इस पवित्र धरोहर को स्पर्श न कर सके।

( Hindu Jeevanaadarsh Prashth ..135-136 )


भारतीय इतिहासकारों ने पुष्यमित्र शुंग के साथ बहुत अन्याय किया है, महान इतिहासकार KOENRAAD ELST का कहना है कि अशोक से अधिक धर्म-निरपेक्ष पुष्यमित्र शुंग था, जिसने वैदिक धर्म का प्रचार प्रसार तो किया परन्तु शांतिप्रिय बोद्धों को भी जीवन यापन की समस्त स्वत्रंता प्रदान की और उन्हें परेशान नही किया ।

आज भारत के इतिहास में आदि गुरु शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट, पुष्यमित्र शुंग तथा राजा शशांक शेखर जैसे शास्त्र और शस्त्र से वैदिक धर्म की संरक्षण तथा प्रचार-प्रसार करने वाले महान युगपुरुषों को स्थान नही दिया जाता... यदि भारत की शिक्षा पद्धति में इतिहास के विषय में उपरोक्त महान युगपुरुषों को उचित स्थान मिले तो किसी को यह बताने की आवश्यकता नही कि ... विश्व गुरु किस प्रकार बना जाये ?

कभी भारत की भूमि को कोई विजित नही कर पाया, और वेद-विरोधी सम्प्रदाय के कुचक्रों में फंसकर भारत का इतिहास वर्षों से गुलामी के रक्तरंजित इतिहास में जकड़ चुका है ।

मस्त सांडों से कभी खेती नही करवा सकता कोई... परन्तु वर्तमान में विधर्मी और विदेशियों ने इस सत्य को असत्य करके भारत के मस्त सांडों से खेती करवा दी है ।

यह कहना सत्य ही होगा कि McCauley अपने लक्ष्य में सफल हो चुका है ।

क्या आप पुष्यमित्र शुंग की भाँति सनातन धर्म की रक्षार्थ कार्य सकते हैं ?


सीमाएं उसी राष्ट्र की विकसित और सुरक्षित रहेंगी ...
...जो सदैव संघर्षरत रहेंगे ।

जो लड़ना ही भूल जाएँ वो न स्वयं सुरक्षित रहेंगे न ही अपने राष्ट्र को सुरक्षित बना पाएंगे ।

जय श्री राम कृष्ण परशुराम