Wednesday 8 April 2015

Why Do We Renunciate our Sacred Symbols?


Why Do We Renunciate our Sacred Symbols?

धर्म को जीना ही धर्म का प्रचार है l

हम अपना पतन स्वयं कर रहे हैं l

हम क्यों नही शिखा धारण करते ?

क्या आज भी हमारे आसपास औरंगजेब घूम रहा है ?

शिखा धर्म का स्तम्भ है ... इसे धारण कीजिये l

स्पष्ट रूप से कहूं तो मुझे इतिहास में ऐसा कोई प्रमाण नही प्राप्त होता जिससे यह सिद्ध होता हो कि 1947 के बाद की किसी भी सरकार ने "शिखा" रखने पर प्रतिबन्ध लगाया हो l

चोटी न रखने या चोटी काटने के लिए किसी ने प्रचार भी नहीं किया, किसी ने आपसे कहा भी नही, आपको आज्ञा भी नहीं दी, फिर भी आपने चोटी काट ली ! क्यों ?

परन्तु नेहरूवादी हिंदुत्व के इतिहासकारों और लेखकों ने सलीमशाही जूतियाँ चाट चाट कर जो कुछ लिखा है उसके बहुत ही नकारात्मक प्रभाव हिन्दू समाज पर पड़े हैं l

फिर भी हम शिखा क्यों नही धारण करते...?

जबकि आज विदेशी जो सनातन वैदिक धर्म को स्वीकार कर रहे हैं... वे सब शिखा धारण कर रहे हैं, एक ऐसा भी दिन आयेगा कि वो विदेशी आपको सनातन वैदिक हिन्दू धर्म का अनुयायी मानने से मना कर देगा ... और आपके पास कोई उत्तर नही रहेगा l

युवा और वृद्ध कोई नहीं बचा इस मायाजाल से ... आखिर ये कट्टरता होती क्या है ?
पहले ठुकता-पिटता है, फिर बदनाम होता है... और तिलक के स्थान पर माथे पे लिखवा लेता है हिन्दू ... साम्प्रदायिक l

क्यूंकि इस राजनैतिक षड्यंत्र का Counter करना तो दूर की बात है ... आम हिन्दू Reply तक नहीं कर सकता, अच्छे तरीके से l

शिखा (चोटी) रखना,
तिलक लगाना,
जनेऊ पहनना,
भगवा रंग का गमछा-अंगोछा लपेटना,
कलावा या अन्य रक्षा-सूत्र बांधना,

आदि उपरोक्त प्रतीकों को धारण करके जब कोई सरकारी कार्यालयों या विभागों में काम करने जाता था या काम करवाने जाता था, उन्हें यह जुमले मारे जाते थे... कि आप तो बहुत कट्टर दीखते हो ?
इतनी कट्टरता ठीक नही ...

धीरे धीरे हिन्दू समाज ने शिखा धारण करना ही छोड़ दिया...
जिन शिखाओं के लिए इसी हिन्दू समाज के पूर्वजों ने अपनी गर्दने करवाई थीं ...

न जाने आज कितने कट्टर औरंगजेब इन -"अ-कट्टर" हिन्दुओं के आसपास घूम रहे हैं ...

और कट्टर भी केवल हिन्दू ...
कट्टर मुसलमान नही...
कट्टर ईसाई नही...
कट्टर यहूदी नही,
कट्टर जैन नहीं,
कट्टर बोद्ध नही,
कट्टर सिक्ख नही,

... कट्टर SECULAR भी नही...
... कट्टर देशद्रोही भी नही...
कट्टर भ्रष्टाचारी भी नही...
कट्टर स्मैकिया भी नही.. .
कट्टर नशेड़ी भी नही ...

केवल हिन्दू ही कट्टर है पूरे विश्व में...
आइये जानने का प्रयास करते हैं कि आखिर ये कट्टर होता क्या है ...

कट्टर अर्थात... किसी भी काम में, रूप, रंग, आदि में "अति" या अतिवाद को कट्टरता कहा जाता है l

दार्शनिक शब्दों में कहा जाए तो कट्टरता तमस का ही एक पर्याय है...
जड़ और जड़ता... जो जहां है, वहीं रुक जाए l

ठहरे, जमे और रुके हुए पानी में भी कीड़े पड़ जाते हैं l

इसी कारण से... सनातन धर्म में ज्ञान का बहुत महत्व बताया गया है l

ज्ञान ... बढ़ता जाए, बढाते रहो, बहते रहो, जो कि सत्त्व का पर्याय माना जाता है l

इसीलिए हमारे यहाँ शब्द प्रयोग होता है "धर्म-परायणता"...

चीन में भारत की अलग परिभाषा दी जाती है ...
भा+रत
भा अर्थात ज्ञान
रत अर्थात लीन रहना... ज्ञान में लीन रहना l

आप क्या बनना चाहते हैं... ?

कट्टर हिन्दू या धर्म-परायण हिन्दू...

वैसे... अतिवाद और अति की इस लहर से कोई नहीं बचा l

चाहे कट्टर डाक्टर हो... जहां जाओ बस डाक्टरी ही दिखाओ l
चाहे कट्टर इंजीनियर हो... जहां जाओ बस इंजिनीयरि ही दिखाओ l
चाहे कट्टर वैज्ञानिक हो... जहां जाओ बस विज्ञान ही विज्ञान ... बाकी सब पागल l
चाहे कट्टर दुकानदार हो... दुनिया पलट जाए... परन्तु दुकानदारी नहीं छोड़ेंगे l
चाहे कट्टर अफसर ... अफसरी के आगे बाकी सब नौकर l
चाहे कट्टर अध्यापक... जहां भी हो बस... शुरू हो जाओ l

कट्टर कांग्रेसी... यदि कांग्रेस किसी कुत्ते को खड़ा कर दे तो उसे भी वोट देंगे l
लुट गया देश, बर्बाद हो गया देश, भाड़ में गया देश ... गांधी-नेहरु परिवार ही महान है l

कट्टर सपाई... दूध का व्यापार चाहे मुल्ला मुलायम मुसलमानों को सौंप दें परन्तु वोट मुल्ल्ला को हो जायेगा l

कट्टर बसपाई... माया धन और बल से कबकी मनुवादी हो गई, परन्तु वोट माया को ही देंगे l

कट्टर वामपंथी... न घर चले, न दूकान, वामपंथ सदा महान, सारी जिन्दगी धर्म को अफीम कहते रहे, पर अंतिम संस्कार वैदिक मन्त्रों से ही, देह के साथ ही मर गई अफीम कहने वाली जुबान भी l

कट्टर अम्बेडकरवादी ... जब आँख खोली तो अम्बेडकर की कहानी ही सुनीं, वो जो अम्बेडकर ने न लिखी न कही, और लगे हिन्दुओं को गाली देने l पर अम्बेडकर ने क्या कहा, क्या लिखा... ये न कभी जाना, न ही जानने का प्रयास मात्र ही किया l

कट्टर पाकिस्तानी ... अपने देश का पता नही, पर भारत को नेस्तनाबूद करने के सपने रोज देखना l

कट्टर अरबी ... खजूर और तेल पूरी दुनिया में बिकता रहे, इस्लाम का प्रचार होता रहे, मुसलमान गया भाड़ में l

कट्टर और धर्म परायणता के इस खेल को ... हिन्दू ही कभी समझ न पाया जिसकी धार्मिक एवं सांस्कृतिक मूल शिक्षाओं में भी सत्त्व का विशेष महत्व है l

धर्म परायण बनो...

और इन कट्टर कांग्रेसियों, कट्टर सपाई, कट्टर बसपाई, कट्टर वामपंथियों आदि के चंगुल से बाहर निकलो...

और सोने की चिड़िया कैसे बनाया जाए, इस पर विचार मंथन करके अडिग होकर कार्य करो l

सात्विक, राजसिक और तामसिक ... इन तीन प्राकृतिक गुणों की विवेचना अधिक करूँगा तो समय बहुत लग जायेगा, और पढ़े बिना ही सब छोड़ देंगे,
काम की बात संभव है कि आप सबको समझ आ ही गई होगी l

कुछ लोग शिखा और चोटी को लेकर अत्यधिक कुतर्क करते हैं, गीता प्रेस गोरखपुर की हजारों पुस्तकों में सद्विचार लिखने वाले युगसंत स्वामी रामसुख दास जी महाराज ने कुछ इस प्रकार उन कुतर्कों का उत्तर दिया है ...
कुतर्क - चोटी रखने से क्या लाभ होगा ?
उत्तर - जो लाभ को देखता है, वह पारमार्थिक उन्नति कर ही नहीं सकता l
लाभ देखकर ही कोई कार्य करोगे तो फिर शास्त्र-वचन का, संत वचन का क्या आदर हुआ ?
उनकी क्या सम्मान हुआ ?


अपने लाभ के लिए, अपना मतलब सिद्ध करने के लिए तो पशु-पक्षी भी कार्य करते हैं l
यह मनुष्य-पना नही है l चोटी रखने में आपकी भलाई है - इसमें मेरे को रत्तीमात्र भी संदेह नही है l
वास्तव में हमे लाभ-हानि को न देखकर धर्म को देखना है l  धर्मशास्त्र में आया है कि बिना शिखा के जो भी दान, यज्ञ, ताप, व्रत आदि शुभकर्म किये जाते हैं वे सब निष्फल हो जाते हैं l


सदोपवीतिना भाव्यं सदा बद्धशिखेन च l
विशिखो व्युपवीतश्च यत्करोति न तत्कृतम ll

शिखा अर्थात चोटी हिन्दुओं का प्रधान चिन्ह है l

हिन्दुओं में चोटी रखने की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है l
परन्तु अब अपने इसका त्याग कर दिया है - यह बड़े भारी नुकसान की बात है l

विचार करें, चोटी न रखने या चोटी काटने के लिए किसी ने प्रचार भी नहीं किया, किसी ने आपसे कहा भी नही, आपको आज्ञा भी नहीं दी, फिर भी आपने चोटी काट ली तो आप मानो कलियुग के अनुयायी बन गये ! यह कलियुग का प्रभाव है,  क्योंकि उसे सबको नरकों में ले जाना है l

चोटी कट जाने से नरकों में जाना सुगम हो जायेगा l

इसलिए आपसे प्रार्थना है कि चोटी को साधारण समझकर इसकी उपेक्षा न करें, चोटी रखना मामूली दिखता है परन्तु वास्तव में यह तनिक भी मामूली कार्य नही है l

लेख के आरम्भ की पंक्तियाँ फिर लिख रहा हूँ... इन्हें सदैव स्मरण रखें l

हम अपना पतन स्वयं कर रहे हैं l
हम क्यों नही शिखा धारण करते ?
क्या आज भी हमारे आसपास औरंगजेब घूम रहा है ?
शिखा धर्म का स्तम्भ है ... इसे धारण कीजिये l

स्पष्ट रूप से कहूं तो मुझे इतिहास में ऐसा कोई प्रमाण नही प्राप्त होता जिससे यह सिद्ध होता हो कि 1947 के बाद की किसी भी सरकार ने "शिखा" रखने पर प्रतिबन्ध लगाया हो l

चोटी न रखने या चोटी काटने के लिए किसी ने प्रचार भी नहीं किया, किसी ने आपसे कहा भी नही, न ही आपसे आग्रह किया और न ही आपको आदेश ही दिया... फिर भी आपने चोटी काट ली ! क्यों ?

जय हिन्दू राष्ट्र!

जय श्री राम कृष्ण परशुराम ॐ






Sunday 15 March 2015

Icons of the GB Road of Bollywood



बॉलीवुड का जी.बी. रोड 

Icons of the GB Road of Bollywood 

"A Special Thanx to the Parents 
of these uncivilized Icons"


आज India Today Conclave 2015 में AiB Roast के गालिबाज़ों को बुला कर उन्हें विशेष मंच Provide किया गया, जिसमे उन्होंने अपने इस असभ्य तरीके से लोगों का मजाक उड़ाने के अधिकार की वकालत की l

शोभा डे, अरुण पुरी, कोयल पुरी, शाजिया इल्मी, विश्वनाथन आनंद सरीखे लोग उस कार्यक्रम में बुलाये गये थे l

23 फरवरी को मुंबई उच्च न्यायालय ने अगले कुछ दिनों के लिए AiB Roast के आरोपियों पर गिरफ्तारी से रोक लगा दी थी l

बॉलीवुड में स्थापित हुए इस नये GB रोड के 4 Founder Members क्या यह अधिकार भारत की जनता को देंगे कि इन 4 लोगों की आलोचना इन 4 के माँ बाप के सामने इन्हीं के Style में दी जाए l

और बात करें न्यायलय की... न्यायाधीश बिकते हैं... न्यायलय अपमानित होते हैं और न्याय शर्मिन्दा होता है l

न्यायाधीश भी क्या Allow करेंगे इस प्रकार की भाषा को कोर्ट के अंदर प्रयोग करने की, यदि यह 4 लोग कोर्ट में खड़े होकर अपने इस अधिकार की बात करते हैं तो कोर्ट में ही उसी भाषा में यदि उन्हें उत्तर दिया जाए या उनकी आलोचना की जाए या उनके इस अधिकार का खंडन किया जाये ...
निस्संदेह जज साहब आपको उठा कर बाहर फेंक देंगे l

बार काउन्सिल से आपके Advocate का License भी निरस्त करवा देंगे l


यह है अधिकार...

आप सड़कों पर खुलेआम शराब नहीं पी सकते, कल को शराब पीने वाले भी एकजुट होकर यह मांग कर सकते हैं कि शराब पीना मेरा अधिकार है ... मुझे सार्वजानिक रूप से शराब पीने का अधिकार मिलना चाहिए l

शराब पीना आपका अधिकार हो सकता है परन्तु आप सडकों पर सार्वजनिक रूप से नहीं पी सकते क्योंकि जो नहीं पीते उनकी असुविधा का कारण आप बन सकते हो l
शराब का नशा आपको कितना प्रभावित करता है यह तो एक शराबी भी नही जानता, आप आम जनता को हानि भी पहुंचा सकते हो l

आप अपने घर जाइए और आराम से पीजिये l


आप सड़कों पर खुलेआम SEX नहीं कर सकते, कल को SEX करने वाले लोग (पुरुषों का समूह या महिलाओं का समूह या दोनों का समूह) भी एकजुट होकर यह मांग कर सकते हैं कि SEX करना मेरा अधिकार है ... मुझे सार्वजनिक रूप से करने का अधिकार मिलना चाहिए l



डकैतों और चोरी करने वालों को भी अमीरी-गरीबी का अंतर समाप्त करने हेतु सार्वजनिक रूप से डकैती और चोरी करने का अधिकार मिलना चाहिए l


कुछ दिनों में यह लोग सेंसर बोर्ड को भी बंद करने की मांग करने वाले हैं, फिल्म बनाना इनका अधिकार है उस पर किसी भी प्रकार का सेंसर नही होना चाहिए l


AiB Roast के Founder Member आदि की मानसिकता किस स्तर तक विकृत है यह आप विभिन्न प्रकार के उदाहरणों के माध्यम से ज्ञात कर सकते हैं l

मैं कभी पाता हूँ कि स्कूल के बच्चे गलियों में से गुजरते हुए इन्ही भाषाओं का प्रयोग करते हुए निकलते हैं, अब आप उन्हें यदि रोक कर टोकेंगे तो वह चुप हो जायेंगे, क्योंकि आप बड़े हैं आपका सम्मान न चाहते हुए भी उन्हें करना है, भले वे मन ही मन में आपको कोस रहे हों परन्तु उस समय वे चले जायेंगे l

अब अगले दिन वही बच्चे 100 स्कूली बच्चों का एक ग्रुप बना कर आपके घर के बाहर प्रदर्शन करने खड़े हो जायेंगे कि सडकों पर गाली देते हुए घूमना हमारा अधिकार है और यह अधिकार हमे मिलना चाहिए l
भले ही इससे किसी को भी बुरा लगता हो l

कई बार बसों में यात्रा करते समय आजकल देखा जाता है कि ड्राईवर, कंडक्टर और हेल्पर भी आपस में खूब गाली-गलोज करते हुए पाए जाते हैं, उन्हें भी यदि रोको तो वे भी एक कुतर्क लेकर बैठे हैं कि साहब यह काम ही ऐसा है... इसमें बिना गाली के बात ही नही होती ... मानो कि वे अप्रत्यक्ष रूप से आपसे अधिकार मांग रहा हो गाली-गलोज की भाषा में वार्तालाप करने का l

गंभीरता से विचार करें तो AiB Roast के Founder Member उपरोक्त इन सभी उदाहरणों की विकृत्ति का एक नमूना ही हैं, जो इस समय पैसा, आधुनिकता और मनोरंजन की आड़ और बल लेकर इस विकृति को अधिकार का रूप देने का प्रयास कर रहे हैं l

भारत की वो तमाम जनता जो यदा कदा या सामान्यतया अपने वार्तालापों में ऐसी गालियों का सदुपयोग-दुरूपयोग करती रहती है... वो तो आभारी हो गई है AiB Roast के इन Founder Members के माता पिता के ...
धन्य हैं इन चारों के माँ बाप जिन्होंने ऐसे युगपुरुषों (गाली-गलौज करने वाले युगपुरुष) को जन्म दिया और गाली गलौज युक्त विकृति के ICON बने हैं यह लोग l


करण जौहर की माँ तो वैसे भी धन्य हैं, उन्हें बार बार धन्यवाद देकर हम उन्हें परेशान ही करने लगते हैं l

रणवीर कपूर के माँ-बाप तो कलयुग के सबसे महान माँ-बाप में शुमार हो चुके हैं जिन्होंने ऐसी औलाद को जन्म दिया है जो बहुत अच्छा अभिनेता है, मसखरा है, गाली गलौज में इतना अभ्यस्त है कि अपने आसपास बैठे छोटे बड़े लोगों का कोई ध्यान नहीं उन्हें... देखा वे कितने सभ्य हैं ?


अर्जुन कपूर के माता-पिता में से कौन धन्य है यह कहना थोडा सा कठिन कार्य है, अर्जुन कपूर की माँ को उनके पिता बोनी कपूर ने 1997 में तलाक देकर अभिनेत्री श्रीदेवी से विवाह कर लिया था, शायद बोनी कपूर को अपने और अपनी पत्नी के संसर्ग द्वारा एक कुपुत्र को पैदा किये जाने का बोध हो गया था... इस हेतु ही उन्होंने अपनी पत्नी को तलाक दिया हो l

अर्जुन कपूर के चाचा संजय कपूर भी वहीं बैठे थे, उन्हें कुछ कहने से पहले हमे यह देखना पड़ेगा कि वो +18 दिमाग से हैं कि नही ... क्योंकि शरीर से तो वो अपने भतीजे अर्जुन कपूर के पुत्र जैसे ही लगते हैं l

अपने गाली-ग्लौजी पिता अर्जुन कपूर द्वारा गालियों पर गालियाँ दिए जाने पर वो किस प्रकार हंसते जा रहे थे, वाकई उन्हें गर्व हो रहा होगा अपने बोद्धिक पिता अर्जुन कपूर पर l

सोनम कपूर को अपने भाई को गाली गलौज करते हुए और वहां बैठी महिलाओं के सामने और उन्ही महिलाओं पर अभद्र भाषा में टिप्पणियाँ करने का समर्थन किया गया l
यह कलयुगी बहन हैं... लोग सही कहते हैं, बॉलीवुड में कोई भाई-बहन नही होता l

एक समय था जब कपूर खानदान ने अपने खानदान की महिलाओं पर फिल्मो में काम करने पर रोक लगा रखी थी, परन्तु अपनी पत्नी के सामने अपना पुरुषार्थ खो चुके रणधीर कपूर अपनी पत्नी के आगे इस विवाद पर भी हार गए और उनकी पत्नी बबीता की जिद के आगे उनकी एक नही चली... बड़ी बेटी लोलो और फिर छोटी बेटी बेबो ने आकर कपूर खानदान की ईंट से ईंट बजाने में कोई कसार नहीं छोड़ी l
और फिर छोटी बेटी बेबो ने तो अपना धर्म-परिवर्तन भी करवा लिया l

अब यह कपूर बहनें भी अपने सोनम कपूर की तर्ज पर अपने भाई रणबीर कपूर कू इसी गाली-गलौज करते पाए जाने का समर्थ करती हुई न पाई जाएँ... क्योंकि खबर पढ़ी थी कहीं कि रणबीर कपूर भी Aib Roast के कार्यक्रम का प्रतिनिधित्व करने वाले हैं l


दीपिका पादुकोण के बारे में कुछ कहने में मुझे स्वयं लज्जा आ रही है... ये तो 25-30 वर्ष की आयु में ही भारत के बड़े बड़े अभिनेताओं और व्यवसायिओं के साथ अपनी पिक्चरें खुलेआम बनवा चुकी हैं... उसके बारे में बात करके कोई लाभ नही, और वैसे भी इस प्रकार के मनोरंजनी बलात्कार उनके साथ न जाने कितनी रातों में हुए होंगे l


Bollywood के जी.बी. रोड का जिक्र हो तो भला महेश भट्ट को कैसे भूला जा सकता है, जो आज से लगभग 20 वर्ष पहले अपनी बेटी पूजा भट्ट को अमर्यादित रूप से चूमते हुए फोटो खिंचवाते हैं और कहते हैं कि मर्यादाओं और समाज का भय न होता तो अपनी बेटी से ही विवाह कर लेता...
महेश भट्ट जी आपका यह सपना पूरा हो सकता था... किसी इसाई देश में बस जाते तो वहां पर पिता-पुत्री सम्बन्धों को कोई बुरा नही माना जाता... और आपकी पुत्री को Virgin Mother का सम्मान भी प्राप्त हो जाता l



इन्ही महेश भट्ट की दूसरी (सही गिनती नही मालूम) बीवी सोनी राजदान (ब्रिटिश-भारतीय वर्ण संकर) भी AiB Roast की in गाली-गलौजों का भरपूर लुत्फ़ उठाती दिखाई दीं वो भी स्वयं अपनी ही पुत्री के साथ... आनन्द ही आनंद प्राप्त हो रहा था दोनों को l
और ऐसी ही महिलाएं ... महिला सशक्तीकरण और महिला अधिकारों के बिगुल बजाती हुई दिखाई देती हैं l

चलते चलते... पूरे Bollywood को बात बात पर खामोश कहने वाले शत्रुघ्न सिन्हा अपनी पुत्री को शायद खामोश नहीं कह पाए... जो कि 4000 रूपये देकर इस जी.बी. रोड पर अपना मनोरंजनी बलात्कार करवाने पहुँच गईं और रणवीर सिंह, अर्जुन कपूर, करण जौहर द्वारा आना मनोरंजनी बलात्कार करवाने से भरपूर आनंद के भाव प्राप्त होते उनकी ख़ुशी देखते ही बन रही थी... आप उनके चित्र Google पर सर्च कर सकते हैं l
मनोरंजनी बलात्कार की इस सुखद अनुभूति पर उनके चित्र उनका पूरा समर्थन कर रहे हैं l

शत्रुघ्न जी... एक बार खामोश कह दिए होते तो शायाद ... ?? 

अंत में इन युगपुरुषों की और से भी AiB Roast के Founder Members के माता पिता को हार्दिक धन्यवाद जिन्होंने इतने गुणवान बच्चे इस देश को दिए... देश की गाली गलौज करने वाली जनता को उन पर बहुत गर्व है l














Friday 6 March 2015

Sanskrit Subhashit - 1




ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

संस्कृत - सुभाषित



द्वेष्यो न साधुर्भवति मेधावी न पंडितः ।
प्रिये शुभानि कार्याणि द्वेष्ये पापानि चैव हि॥

जिस व्यक्ति से द्वेष हो जाता है वह न साधु जान पड़ता है, न विद्वान और न बुद्धिमान । जिससे प्रेम होता है उसके सभी कार्य शुभ और शत्रु के सभी कार्य अशुभ प्रतीत होते हैं ।
– महाभारत



अल्पानामपि वस्तूनां संहति: कार्यसाधिका तॄणैर्गुणत्वमापन्नैर् बध्यन्ते मत्तदन्तिन: ।

छोटी-छोटी वस्तुयें एकत्र करने से बडे काम भी हो सकते हैं, घास से बनायी हुर्इ डोरी से मत्त हाथी बाधा जा सकता है ।



नीरक्षीरविवेके हंस आलस्यम् त्वम् एव तनुषे चेत्
विश्वस्मिन् अधुना अन्य: कुलव्रतं पालयिष्यति क:?


अरे! हंस यदि तुम ही पानी तथा दूध भिन्न करना छोड दोगे तो दूसरा कौन तुम्हारा यह कुलव्रत का पालन कर सकता है ?
यदि बुद्धीवान तथा कुशल मनुष्य ही अपना कर्तव्य करना छोड दे तो दूसरा कौन वह काम कर सकता है ?




शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे ।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ।।


हर एक पर्वत पर माणिक नहीं होते, हर एक हाथी में उसके गंडस्थल में मोती नहीं मिलते,
साधु सर्वत्र नहीं होते, हर एक वनमें चंदन नहीं होता ।
दुनिया में अच्छी चीजें बडी तादात में नहीं मिलती ।



कलहान्तनि हम्र्याणि कुवाक्यानां च सौ ।
दम्कुराजान्तानि राष्ट्राणि कुकर्मांन्तम् यशो नॄणाम ।।


झगडों से परिवार टूट जाते हैं, गलत शब्द-प्रयोग करने से दोस्त टूटते है, बुरे शासकों के कारण राष्ट्र का नाश होता है, बुरे काम करने से यश दूर भागता है ।



यादॄशै: सन्निविशते यादॄशांश्चोपसेवते ।
यादॄगिच्छेच्च भवितुं तादॄग्भवति पूरूष:।।


मनुष्य, जिस प्रकारके लोगोंके साथ रहता है, जिस प्रकारके लोगोंकी सेवा करता है, जिनके जैसा बनने की इच्छा करता है, वैसा वह होता है ।



गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बल: ।
पिको वसन्तस्य गुणं न वायस: करी च सिंहस्य बलं न मूषक: ।।


गुणी पुरुष ही दुसरे के गुण पहचानता है, गुणहीन पुरुष नही,
बलवान पुरुष ही दुसरे का बल जानता है, बलहीन नही ।
वसन्त ऋतु आए तो उसे कोयल पहचानती है, कौआ नही ।
शेर के बल को हाथी पहचानता है, चूहा नही ।



पदाहतं सदुत्थाय मूर्धानमधिरोहति ।
स्वस्थादेवाबमानेपि देहिनस्वद्वरं रज: ।।


जो पैरों से कुचलने पर भी उपर उठता है ऐसा मिट्टी का कण अपमान किए जाने पर भी चुप बैठनेवाले व्यक्ति से श्रेष्ठ है ।


परस्य पीडया लब्धं धर्मस्योल्लंघनेन च ।
आत्मावमानसंप्राप्तं न धनं तत् सुखाय व ।।

दूसरों को दु:ख देकर, धर्मका उल्लंघन करकर या खुद का अपमान सहकर मिले हुए धन से सुख नही प्राप्त
होता ।
- महाभारत


अकॄत्वा परसन्तापं अगत्वा खलसंसदं ।
अनुत्सॄज्य सतांवर्तमा यदल्पमपि तद्बह ।।


दूसरों को दु:ख दिये बिना ;
विकॄती के साथ अपाना संबंध बनाए बिना ;
अच्छों के साथ अपने सम्बंध तोडे बिना ;
जो भी थोडा कुछ हम धर्म के मार्ग पर चलेंगे उतना पर्याप्त है |



य: स्वभावो हि यस्यास्ति स नित्यं दुरतिक्रम: ।
श्वा यदि क्रियते राजा तत् किं नाश्नात्युपानहम् ।।


जिसका जो स्वभाव होता है, वह हमेशा वैसा ही रहता है. कुत्ते को अगर राजा भी बनाया जाए, तो वह अपनी जूते चबाने की आदत नही भूलता ।



सुखमापतितं सेव्यं दुखमापतितं तथा ।
चक्रवत् परिवर्तन्ते दु:खानि च सुखानि च ।।

जीवन में आनेवाले सुख का आनंद ले, तथा दु:ख का भी स्वीकार करें ।
सुख और दु:ख तो एक के बाद एक चक्रवत आते रहते है ।
- महाभारत


मनसा चिन्तितंकर्मं वचसा न प्रकाशयेत् ।
अन्यलक्षितकार्यस्य यत: सिद्धिर्न जायते ।।

मन में की हुई कार्य की योजना दुसरों को न बताये, दूसरें को उसकी जानकारी होने से कार्य सफल नही होता ।



जलबिन्दुनिपातेन क्रमश: पूर्यते घट: ।
स हेतु: सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च ।।

जिस तरह बुन्द बुन्द पानीसे घडा भर जाता है, उसी तरह विद्या, धर्म, और धन का संचय होत है ।



यद्धात्रा निजभालपट्टलिखितं स्तोकं महद्वा धनम् ।
तत्प्राप्नोति मरूस्थलेऽपि नितरां मेरौ ततो नाधिकम ।।
तद्धीरो भव, वित्तवत्सु कॄपणां वॄत्तिं वॄथा ।
मा कॄथा: कूपे पश्य पयोनिधावपि घटो गॄह्णाति तुल्यं पय: ।।

विधाता ने ललाट पर जो थोडा या अधिक धन लिखा है,
वो मरूभूमी मे भी मिलेगा, मेरू पर्वत पर जाकर भी उससे ज्यादा नहीं मिलेगा ।
धीरज रखो, अमीरों के सामने दैन्य ना दिखाओ, देखो यह गागर कुआँ या सागर में से उतनाही पानी ले सकती है ।
-नीतिशतक



तत् कर्म यत् न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये ।

जिस कर्म से मनुष्य बन्धन में नही बन्ध जाता वही सच्चा कर्म है, जो मुक्ति का कारण बनती है वही सच्ची विद्या है ।

- “विष्णुपुराण”



अधर्मेणैथते पूर्व ततो भद्राणि पश्यति ।
तत: सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति ।।

कुटिलता व अधर्म से मानव क्षणिक समॄद्वि व संपन्नता पाता है, अच्छा दैव का अनुभव भी करता है ।
शत्रु को भी जीत लेता है, परन्तु अन्त मे उसका विनाश निश्चित है, वह जड़ समेत नष्ट होता है ।



अधर्मेणैथते पूर्व ततो भद्राणि पश्यति ।
तत: सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति ।।

कुटिलता व अधर्म से मानव क्षणिक समॄद्वि व संपन्नता पाता है, अच्छा दैव का अनुभव भी करता है, शत्रु को भी जीत लेता है, परन्तू अन्त मे उसका विनाश निश्चित है, वह जड समेत नष्ट होता है ।



लुब्धमर्थेन गॄणीयात् क्रुद्धमञ्जलिकर्मणा मूर्खं ।
छन्दानुवॄत्त्या च तत्वार्थेन च पण्डितम् ।।


लालची मनुष्यको धन (का लालच) देकर वश किया जा सकता है, क्रोधित व्यक्ति के साथ नम्र भाव रखकर उसे वश किया जा सकता है, मूर्ख मनुष्य को उसके इछानुरुप बर्ताव कर वश कर सकते है, तथा ज्ञानि व्यक्ति को मुलभूत तत्व बताकर वश कर सकते है ।




असभ्दि: शपथेनोक्तं जले लिखितमक्षरम् ।
सभ्दिस्तु लीलया प्राणोंक्तं शिलालिखितमक्षरम् ।।


दुर्जनो द्वारा ली हुइ शपथ भी पानी के उपर लिखे हुए अक्षरों जैसे क्षणभंगुर ही होती है, परन्तू संतो जैसे व्यक्ति ने सहज रूप से बोला हुआ वाक्य भी शिला के उपर लिखा हुआ जैसे रहता है ।



शरदि न वर्षति गर्जति वर्षति वर्षासु नि:स्वनो मेघ: ।
नीचो वदति न कुरुते न वदति सुजन: करोत्येव ।।

शरद ऋतु मे बादल केवल गरजते है, बरसते नही,
वर्षा ऋतु मै बरसते है, गरजते नही ।
नीच मनुश्य केवल बोलता है, कुछ करता नही,
परन्तु सज्जन करता है, बोलता नही ।




आरोप्यते शिला शैले यत्नेन महता यथा ।
पात्यते तु क्षणेनाधस्तथात्मा गुणदोषयो: ।।

शिला को पर्वत के उपर ले जाना कठिन कार्य है परन्तू पर्वत के उपर से नीचे ढकेलना तो बहुत ही सुलभ है ।
ऐसे ही मनुष्य को सद्गुणो से युक्त करना कठिन है पर उसे दुर्गुणों से भरना तो सुलभ ही है ।



खद्योतो द्योतते तावद् यवन्नोदयते शशी ।
उदिते तु सहस्रांशौ न खद्योतो न चन्द्रमा: ।।

जब तक चन्द्रमा उगता नही, जुगनु भी चमकता है, परन्तु जब सुरज उगता है तब जुगनु भी नही होता तथा चन्द्रमा भी नही दोनो सूरज के सामने फीके पडते है ।


वनेऽपि सिंहा मॄगमांसभक्षिणो बुभुक्षिता नैव तॄणं चरन्ति ।
एवं कुलीना व्यसनाभिभूता न नीचकर्माणि समाचरन्ति ।।

जंगल मे मांस खानेवाले शेर भूख लगने पर भी जिस तरह घास नही खाते, उस तरह उच्च कुल मे जन्मे हुए
व्यक्ति (सुसंस्कारित व्यक्ति) संकट काल मे भी नीच काम नही करते ।


यो यमर्थं प्रार्थयते यदर्थं घटतेऽपि च ।
अवश्यं तदवाप्नोति न चेच्छ्रान्तो निवर्तते ।।

कोर्इ मनुष्य अगर कुछ चाहता है और उसके लिए अथक प्रयत्न करता है तो वह उसे प्राप्त करके ही रहता है ।



यद्धात्रा निजभालपट्टलिखितं स्तोकं महद्वा धनम् तत् प्राप्नोति मरूस्थलेऽपि नितरां मेरौ ततो नाधिकम् ।
तद्धीरो भव, वित्तवत्सु कॄपणां वॄत्तिं वॄथा मा कॄथा: कूपे पश्यपयोनिधावपि घटो गॄह्णाति तुल्यं पय: ।।

विधाता ने ललाट पर जो थोडा या अधिक धन लिखा है,
वो मरूभूमी मे भी मिलेगा, मेरू पर्वत पर जाकर भी उससे ज्यादा नहीं मिलेगा ।
धीरज रखो, अमीरों के सामने दैन्य ना दिखाओ, देखो यह गागर कुआँ या सागर में से उतना ही पानी ले सकती है ।
- नीतिशतक



वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा ।
सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुरा कॄतानि ।।

अरण्य मे रणभूमी में, शत्रु-समुदाय में, जल, अग्नि, महासागर या पर्वत-शिखर पर तथा सोते हुए, उन्मत्त स्थिती में या प्रतिकूल परिस्थिती में मनुष्य के पूर्वपुण्य उसकी रक्षा करतें हैं ।



मध्विव मन्यते बालो यावत् पापं न पच्यते ।
यदा च पच्यते पापं दु:खं चाथ निगच्छति ।।

जब तक पाप संपूर्ण रूप से फलित नही होता तब तक वह पाप कर्म मधुर लगता है ।
परन्तु पूर्णत: फलित होने के पश्च्यात मनुष्य को उसके कटु परिणाम सहन करने ही पड़ते है ।



अन्यक्षेत्रे कॄतं पापं पुण्यक्षेत्रे विनश्यति ।
पुण्यक्षेत्रे कॄतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ।।

अन्यक्षेत्र में किए पाप पुण्य क्षेत्र में धुल जाते है, पर पुण्य क्षेत्र में किए पाप तो वज्रलेप की तरह होते हैं ।



एकेन अपि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम् ।
सह एव दशभि: पुत्रै: भारं वहति गर्दभी ।।

सिंहनी को यदि एक छावा भी है तो भी वह आराम करती है क्योंकी उसका छावा उसे भक्ष्य लाकर देता है ।
परन्तु गधी को दस बच्चे होने परभी स्वयं भार का वहन करना पडता है ।


मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।
मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् ।।

महान व्यक्तियों के मन में जो विचार होता है वही वे बोलते है और वही कॄति मे भी लाते है, उसके
विपारित नीच लोगों के मन मे एक होता है, वे बोलते दूसरा हैं और करते तीसरा हैं ।



जीवने यावदादानं स्यात् प्रदानं ततोऽधिकम् ।
इतयेषा प्रार्थनाऽस्माकं भगवन्परिपूर्यताम् ।।


हमारे जीवन में हमारी याचनाओं से अघिक हमारा दान हो यह एक प्रार्थना हे भगवन् तुम पूरी कर दो ।



सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा ।
शान्ति: पत्नी क्षमा पुत्र: षडेते मम बान्धवा: ।।

सत्य मेरी माता, ज्ञान मेरे पिता, धर्म मेरा बन्धु, दया मेरा सखा, शान्ति मेरी पत्नी तथा क्षमा मेरा पुत्र है ।
यह सब मेरे रिश्तेदार है ।



भीष्मद्रोणतटा जयद्रथजला गान्धारनीलोत्पला ।
शल्यग्राहवती कॄपेण महता कर्णेन वेलाकुला ।।
अश्वत्थामविकर्णघोरमकरा दुर्योधनावर्तिनी ।
सोत्तीर्णा खलु पाण्डवै: रणनदी कैवर्तक: केशव: ।।


भीष्म और द्रोण जिसके दो तट है जयद्रथ जिसका जल है शकुनि ही जिसमें नीलकमल है शल्य जलचर ग्राह है कर्ण तथा कॄपाचार्य ने जिसकी मर्यादा को आकुल कर डाला है अश्वत्थामा और विकर्ण जिस के घोर मगर है ऐसी भयंकर और दुर्योधन रूपी भंवर से युक्त रणनदी को केवल श्रीकॄष्ण रूपी नाविक की सहायता से पाण्डव पार कर गये ।



श्रिय: प्रसूते विपद: रुणद्धि, यशांसि दुग्धे मलिनं प्रमार्ष्टि ।
संस्कार सौधेन परं पुनीते, शुद्धा हि बुद्धि: किलकामधेनु: ।।

शुद्ध बुद्धि निश्चय ही कामधेनु जैसी है क्योंकि वह धन-धान्य पैदा करती है; आने वाली आफतों से बचाती है; यश और कीर्ति रूपी दूध से मलिनता को धो डालती है; और दूसरों को अपने पवित्र संस्कारों से पवित्र रती है। इस तरह विद्या सभी गुणों से परिपूर्ण है।



।।ऋतस्य पन्थां न तरन्ति दुष्कृतः।।
सत्य के मार्ग को दुष्कर्मी पार नहीं कर पाते ।


वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च ।
न विप्रदुष्टभावस्य सिद्घिं गच्छन्ति कर्हिचित् ।।

जिसके भाव अपवित्र हैं ऐसे मनुष्य के संबंध में वेदों का अध्ययन, दान, यज्ञ, नियम और तप कभी सिद्घि को नहीं प्राप्त होते, अर्थात् उसके लिए वेदाध्ययनादि सब बिल्कुल व्यर्थ हैं ।



।।पदं हि सर्वत्र गुणैर्निधीयते।।

गुण सर्वत्र अपना प्रभाव जमा देता है ।



।।न स्वधैर्यादृते कश्चदभयुद्धरति सङ्कटात्।।

अपने धैर्य के बिना कोई और संकट से मनुष्य का उद्धार नहीं करता ।



सकृत्कन्दुकपातेन पतत्यार्यः पतन्नपि ।
तथा पतति मूर्खस्तु मृत्पिण्डपतनं यथा ।।

आर्य पुरूष गिरते हुए भी गेंद के समान एक बार गिरता है (अर्थात् गिरते ही तत्काल पुनः उठ जाता है)।
परन्तु मूर्ख तो मिट्टी के ढेले के समान गिरता है(अर्थात् गिरते ही चूर-चूर हो जाता है)।



।।सा मा सत्योक्तिः परि पातु विश्वतः।।

सत्य-भाषण द्वारा ही मैं अपने को सब बुराइयों से बचा सकता हूँ ।


पूर्वजन्मकृतं कर्मेहाजितं तद् द्विधा कृतम् ।।

भाग्य और परिश्रम इन दोनों के ऊपर ही सम्पूर्ण जगत् के कार्य स्थित हैं । इनमें पूर्वजन्म में किया हुआ कर्म 'भाग्य' और इस जन्म में किया हुआ कर्म 'परिश्रम' कहलाता है । इस प्रकार एक कर्म के दो भेद किए गये हैं ।


लोके$त्र जीवनमिदं परिवर्तशीलं दृष्ट्वा बिभावय सखे ! ध्रुवसत्यमेतत् ।
रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पङ्कजालिः ।।


संसार में यह जीवन परिवर्तन-शील है, यह देखकर अयि मित्र ! इस ध्रुव सत्यका सदा ध्यान रखो कि-रात्रि बीत जायेगी, प्रातःकाल होगा, सूर्यदेव का उदय होगा, और कमलों की पंक्ति खिलकर हँसेंगी अर्थात अपत्ति के समय का अंत आवश्य होगा और अच्छा समय लौटेगा, इसका विश्वास सबको रखना चाहिए ।



।।न प्रवृद्धत्वं गुणहेतुः।।

समृद्धशाली हो जाने से व्यक्ति गुणवान नहीं हो जाता ।


न वैकामनामतिरिक्तमस्ति।।

कामनाओं का अन्त नहीं है।


अधमा धनमिच्छन्ति धनमानौ तु मध्यमाः ।
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम् ।।

जो केवल धन चाहते हैं, वे 'अधम' हैं ।
जो धन तथा मान दोनों चाहते हैं, वे 'मध्यम' एवं जो केवल आदर चाहते हैं वे 'उत्तम' जन कहलाते हैं ।
क्यों कि महान लोगों का धन आदर ही है ।


मूर्खाणां पण्डितः द्वेष्याः अधनानां महाधनाः ।
वाराङ्गनाः कुलस्त्रीणां सुभगानां दुर्भगाः ।।

मूर्ख लोग पण्डितों से,
दरिद्र लोग धनिकों से,
वेश्या लोग पतिपरायण कुलीन स्त्रियों से तथा दुर्भाग्य पीड़ित विधवा सौभाग्यवती स्त्रियों से अकारण ही द्वेष करती हैं ।
इनके द्वेष का न तो कोई कारण, और न ही कोई आधार होता है ।
सहज ईर्ष्यावश मूर्ख व्यक्ति विद्वानों को अपना शत्रु मान लेते हैं ।



।।निम्बफलं काकैर्भुज्यते।।
नीम के फल को कौए ही खाते हैं ।
तात्पर्य यह है कि पाप से आया धन पाप कर्म में ही नष्ट होता है ।



जन्म जन्म यदभ्यस्तं दानमध्ययनं तपः ।
तेनैवाभ्यासयोगेन देही चाभ्यस्ते पुनः ।।

एक जन्म में किये गये अध्ययन, जप-तप और दान-पुण्यआदि शुभकर्मों के संस्कार अगले जन्म में भी बने रहते हैं । और उसी संस्कार के फलस्वरुप शरीरधारी दूसरे जन्मों में शुभ कर्मों में लगा रहता है । अभ्यास और अनुभव की यह परम्परा निरंतर चलती रहती है ।



महतामथ क्षुद्राणामन्तराय उपस्थिते ।
कृशानौ कनकस्येव परीक्षा जायते ध्रुवम् ।।

अग्नि में जैसे स्वर्ण की परीक्षा होती है, इसी प्रकार बिघ्न या बाधा के उपस्थित होने पर निश्चय रूप में महान् और क्षुद्र लोगों की परीक्षा होती है ।



यदन्नः पुरुषो भवति तदन्नास्तस्य देवताः।।
मनुष्य स्वयं जिस प्रकार का भोजन करता है, उसके देवताओं का भी वही भोजन होता है ।



कुलीन व्यक्ति साधनहीन हो जाने पर भी अपने संस्कारों तथा दानशीलता, उदारता, त्याग, दया आदि गुणों का परित्याग कदापि नहीं करते । उदाहरणार्थ, चन्दन का वृक्ष काटे जाने पर भी सुगन्ध का परित्याग नहीं करता, वृद्ध हो जाने पर भी हाथी विलास-लीला को छोड़ नहीं देता, पीसे जाने पर भी गन्ना मिठास को नहीं छोड़ता । इसी प्रकार कुलीन व्यक्ति भी अपने उदात्त गुणों को आसानी से नहीं छोड़ पाते ।

-चाणक्य

प्रलय होने पर समुद्र भी अपनी मर्यादा को छोड़ देते हैं लेकिन सज्जन लोग महाविपत्ति में भी मर्यादा को नहीं छोड़ते।

-चाणक्य


"जैसे गाय का बछङा हज़ारोँ गायोँ के बीच अपनी मां को ढूँढ ही लेता है और उसी के पास जाता है,ऐसे ही मनुष्य के कर्म भी उसे ढूँढ ही लेते हैँ। कर्ता अपने कर्म का फल भोगे बिना कैसे रह सकता है"

-चाणक्य



अपनी प्रशंसा आप न करें, यह कार्य आपके सत्कर्म स्वयं करा लेंगे।


असत्य से धन कमाया जा सकता है, पर जीवन का आनन्द, पवित्रता और लक्ष्य नहीं प्राप्त किया जा सकता।


अपनी दिनचर्या में परमार्थ को स्थान दिये बिना आत्मा का निर्मल और निष्कलंक रहना संभव नहीं।


अपवित्र विचारों से एक व्यक्ति को चरित्रहीन बनाया जा सकता है, तो शुद्ध सात्विक एवं पवित्र विचारों से उसे संस्कारवान भी बनाया जा सकता है।


अपने हित की अपेक्षा जब परहित को अधिक महत्व मिलेगा तभी सच्चा सतयुग प्रकट होगा।



तज्जाड्यं वसुधाधिपस्य कवयो ह्यर्थं विनापीश्वराः ।
कुत्स्याः स्युः कुपरीक्षका न मणयो यैरर्घतः पातितः ।।


ज्ञानी पुरुष आर्थिक संपत्ति केबगैर भी अत्यंत धनी होते हैं।
बेशकीमती रत्नों को अगर कोई जौहरी ठीक से परख नहीं पाता तो ये परखने वाले जौहरी की कमी है
क्यूंकि इन रत्नो की कीमत कभी कम नहीं होती।


शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक् छत्रेण सूर्यातपो नागेन्द्रो निशिताङ्कुशेन समदौ दण्डेन गोगर्धभौ ।
व्याधिर्भेषजसंग्रहैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगैर्विषं सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितंमूर्खस्य नास्त्यौषधम् ॥

अग्नि को जल से बुझाया जा सकता है,
तीव्र धूप में छाते द्वारा बचा जा सकता है,
जंगली हाथी को भी एक लम्बे डंडे (जिसमे हुक लगा होता है ) की मदद से नियंत्रित किया जा सकता है,
गायों और गधों से झुंडों को भी छड़ी से नियंत्रित किया सकता है।
यदि कोई असाध्य बीमारी हो तो उसे भी औषधियों से ठीक किया जा सकता है।
यहाँ तक की जहर दिए गए व्यक्ति को भी मन्त्रों और औषधियों की मदद से ठीक किया जा सकता है।
इस दुनिया में हर बीमारी का इलाज है लेकिन किसी भी शास्त्र या विज्ञान में मूर्खता का कोई इलाज या उपाय नहीं है।
-नीति शतक


कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धि जुगुप्सितं निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिष म् ।
सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङ्कते न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रह फल्गुताम् ॥

जिस तरह एक कुत्ता स्वर्ग के राजा इंद्र की उपस्थिति में भी उन्हें अनदेखा कर मनुष्य की हड्डियों को जो बेस्वाद, कीड़ों मकोड़ों से भरे, दुर्गन्ध युक्त और लार में सने होते हैं, बड़े चाव से चबाता रहता है, उसी तरह लोभी व्यक्ति भी दूसरों से तुक्ष्य लाभ भी पाने में बिलकुल भी नहीं कतराते हैं।



अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध् यते विशेषज्ञः ।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति ॥

एक मुर्ख व्यक्ति को समझाना आसान है, एक बुद्धिमान व्यक्ति को समझाना उससे भी आसान है, लेकिन एक अधूरे ज्ञान से भरे व्यक्ति को भगवान ब्रम्हा भी नहीं समझा सकते, क्यूंकि अधूरा ज्ञान मनुष्य को घमंडी और तर्क के प्रति अँधा बना देता है।




वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह ।
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि ॥

हिंसक पशुओं के साथ जंगल में और दुर्गम पहाड़ों पर विचरण करना कहीं बेहतर है परन्तु मूर्खजन के
साथ स्वर्ग में रहना भी श्रेष्ठ नहीं है !




येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः l
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ll

जिन लोगों ने न तो विद्या-अर्जन किया है, न ही तपस्या में लीन रहे हैं, न ही दान के कार्यों में लगे हैं नही ज्ञान अर्जित किया है, न ही अच्छा आचरण करते हैं, न ही गुणों को अर्जित किया है और न ही धार्मिक अनुष्ठान किये हैं, वैसे लोग इस लोक में मनुष्य के रूप में मृगों की तरह भटकते रहते हैं और ऐसे लोग इस धरती पर भार की तरह हैं ।



जृम्भते छेत्तुं वज्रमणीञ्छिरीषकुसुमप्रान्तेन सन्नह्यते ।
माधुर्यं मधुबिन्दुना रचयितुं क्षाराम्बुधेरीहते नेतुं वाञ्छति यः खलान्पथि सतां सूक् तैः सुधास्यन्दिभिः ॥

अपनी शिक्षाप्रद मीठी बातों से दुष्ट पुरुषों को सन्मार्ग पर लाने का प्रयास करना उसी प्रकार है जैसे एक मतवाले हाथी को कमल कि पंखुड़ियों से बस मे करना, या फ़िर हीरे को शिरीशा फूल से काटना अथवा खारे पानी से भरे समुद्र को एक बूंद शहद से मीठा कर देना।



ह्यर्थिभ्यः प्रतिपाद्यमानमनि शं प्राप्नोति वृद्धिं पराम् ।
कल्पान्तेष्वपि न प्रयाति निधनं विद्याख्यमन्तर्धन येषां तान्प्रति मानमुज्झत नृपाः कस्तैः सह स्पर्धते ॥

ज्ञान अद्भुत धन है,
ये आपको एक ऐसी अद्भुत ख़ुशी देती है जो कभी समाप्त नहीं होती।
जब कोई आपसे ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा लेकर आता है और आप उसकी मदद करते हैं तो आपका ज्ञान कई गुना बढ़ जाता है।
शत्रु और आपको लूटने वाले भी इसे छीन नहीं पाएंगे यहाँ तक की ये इस दुनिया के समाप्त हो जाने पर भी ख़त्म नहीं होगी।
अतः हे राजन! यदि आप किसी ऐसे ज्ञान के धनी व्यक्ति को देखते हैं तो अपना अहंकार त्याग दीजिये और समर्पित हो जाइए, क्यूंकि ऐसे विद्वानो से प्रतिस्पर्धा करने का कोई अर्थ नहीं है।





अधिगतपरमार्थान्पण्डितान्मावमं स्था स्तृणमिव लघुलक्ष्मीर्नैव तान्संरुणद्धि ।
अभिनवमदलेखाश्यामगण्डस्थलान न भवति बिसतन्तुवरिणं वारणानाम् ॥

किसी भी ज्ञानी व्यक्ति को कभी काम नहीं आंकना चाहिए और न ही उनका अपमान करना चाहिए क्यूंकि भौतिक सांसारिक धन सम्पदा उनके लिए तुक्ष्य घास से समान है। जिस तरह एक मदमस्त हाथी को कमल की पंखुड़ियों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता ठीक उसी प्रकार धन दौलत से ज्ञानियों को वश में करना असंभव है !



पातितोऽपि कराघातैरुत्पतत्येव कन्दुकः।
प्रायेणसाधुवृत्तानामस्थायिन्यो विपत्त यः ॥

हाथ से पटकी हुई गेंद भी भूमि पर गिरने के बाद ऊपर की ओर उठती है, सज्जनों का बुरा समय अधिकतर थोड़े समय के लिए ही होता है।



स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा ।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् ॥

किसी के स्वभाव या आदत को सिर्फ सलाह देकर बदलना संभव नहीं है, जैसे पानी को गरम करने पर वह गरम तो हो जाता है लेकिन पुनः स्वयं ठंडा हो जाता है ।



बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः ।
श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः ।।

अर्थात् : जो व्यक्ति धर्म ( कर्तव्य ) से विमुख होता है वह ( व्यक्ति ) बलवान् हो कर भी असमर्थ , धनवान् हो कर भी निर्धन तथा ज्ञानी हो कर भी मूर्ख होता है ।



चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं ।
सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ।।

अर्थात्: अच्छे मित्रों का साथ बुद्धि की जड़ता को हर लेता है ,वाणी में सत्य का संचार करता है, मान और
उन्नति को बढ़ाता है और पाप से मुक्त करता है ।
चित्त को प्रसन्न करता है और ( हमारी ) कीर्ति को सभी दिशाओं में फैलाता है ।
(आप ही ) कहें कि सत्संगतिः मनुष्यों का कौन सा भला नहीं करती ।




चन्दनं शीतलं लोके ,चन्दनादपि चन्द्रमाः ।
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ।।

अर्थात् : संसार में चन्दन को शीतल माना जाता है लेकिन चन्द्रमा चन्दन से भी शीतल होता है, अच्छे

मित्रों का साथ चन्द्र और चन्दन दोनों की तुलना में अधिक शीतलता देने वाला होता है ।



अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।


अर्थात् : यह मेरा है, यह उसका है; ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है; इसके विपरीत
उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यहसम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है ।



अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ।।

अर्थात् : महर्षि वेदव्यास जी ने अठारह पुराणों में दो विशिष्ट बातें कही हैं ।
पहली –परोपकार करना पुण्य होता है और दूसरी — पाप का अर्थ होता है दूसरों को दुःख देना ।



श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन, दानेन पाणिर्न तु कंकणेन ।
विभाति कायः करुणापराणां ,परोपकारैर्न तु चन्दनेन ।।

अर्थात् : कानों की शोभा कुण्डलों से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है ।
हाथ दान करने से सुशोभित होते हैं न कि कंकणों से ।
दयालु / सज्जन व्यक्तियों का शरीर चन्दन से नहीं बल्कि दूसरों का हित करने से शोभा पाता है ।




पुस्तकस्था तु या विद्या ,परहस्तगतं च धनम् ।
कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ।।

अर्थात् : पुस्तक में रखी विद्या तथा दूसरे के हाथ में गया धन—ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम नहीं आया करते ।


आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।

अर्थात् : मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है, परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा ) कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता ।


यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् ।
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ।।

अर्थात् : जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है ।



यो दद्यात् काञ्चनं मेरुं कृत्स्नां चैव वसुन्धराम् ।
एकस्य जीवितं दद्यात् न च तुल्यं युधिष्ठिर ॥

हे युधिष्ठिर ! जो सुवर्ण, मेरु और समग्र पृथ्वी दान में देता है, वह (फिर भी) एक मनुष्य को जीवनदान देनेवाले दान का मुकाबला नहीं कर सकता ।



पद्भ्यां कराभ्यां जानुभ्यामुरसा शिरस्तथा ।
मनसा वचसा दृष्टया प्रणामोऽष्टाङ्गमुच्यते ॥

हाथ, पैर, घूटने, छाती, मस्तक, मन, वचन, और दृष्टि इन आठ अंगों से किया हुआ प्रणाम अष्टांग नमस्कार कहा जाता है ।



शुचित्वं त्यागिता शौर्यं सामान्यं सुखदुःखयोः ।
दाक्षिण्यं चानुरक्तिश्च सत्यता च सुहृद्गुणाः ॥

प्रामाणिकता, औदार्य, शौर्य, सुख-दुःख में समरस होना, दक्षता, प्रेम, और सत्यता – ये मित्र के सात गुण हैं ।



आत्मनाम गुरोर्नाम नामातिकृपणस्य च ।
श्रेयःकामो न गृह्नीयात् ज्येष्ठापत्यकलत्रयोः ॥

कल्याण की कामना वाले ने स्वयं को, गुरु को, अतिलोभी पुरुष को, ज्येष्ठ पुत्र को, और पत्नी को नाम से नहीं संबोधना चाहिए ।




गीतासहस्रनामैव स्तवराजो ह्यनुस्मृतिः ।
गजेन्द्रमोक्षाणं चैव पञ्चरत्नानि भारते ॥

भगवद्गीता, विष्णु सहस्रनाम, भीष्मस्त्वराज, अनुस्मृति, और गजेन्द्रमोक्ष – महाभारत के ये पाँच रत्न हैं ।



गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिस्तथैव च ।
गवां पञ्च पवित्राणि पुनन्ति सकलं जगत् ॥

गोमूत्र, गोबर, दूध, दहीं, और घी, गाय से मिलनेवाले ये पाँच पदार्थ जगत को पावन करते हैं ।



मनःशौचं कर्मशौचं कुलशौचं च भारत ।
देहशौचं च वाक्शौचं शौचं पंञ्चविधं स्मृतम् ॥

मनशौच, कर्मशौच, कुलशौच, देहशौच, और वाणी का शौच ( pavitrata/purity )– ये पाँच प्रकार के शौच हैं ।



अभ्यर्थितस्तदा चास्मै स्थानानि कलये ददौ ।
द्यूतं पानं स्त्रियः हिंसा यत्राधर्मश्चतुर्विधः ॥

कलि Kalyug के बिनती करने पर, परिक्षित ने उसे चार स्थान दिये – जुआघर, मद्यपान, स्त्रियों से क्षुद्र व्यवहार, और हिंसा ।


द्यूतेन धनमिच्छन्ति मानमिच्छन्ति सेवया ।
भिक्षया भोगमिच्छन्ति ते दैवेन विडम्बिताः ॥

जुआ खेलकर से धन की इच्छा रखनेवाले, सेवा करके मान प्राप्ति की इच्छा करनेवाले, और भिक्षा द्वारा (मांगकर) भोगप्राप्ति की कामना रखनेवाले दुर्भाग्य को प्राप्त होते हैं ।



पुस्तकं वनिता वित्तं परहस्तगतं गतम् ।
यदि चेत्पुनरायाति नष्टं भ्रष्टं च खण्डितम् ॥

पुस्तक, वनिता / स्त्री और वित्त/ Money परायों के पास जाने पर वापस नहीं आते; और यदि आते भी है,
तो नष्ट, भ्रष्ट और खंडित होकर आते हैं ।



यदीच्छेत् विपुलां मैत्री तत्र त्रीणि न कारयेत् ।
विवादमर्थसम्बन्धं परोक्षे दारभाषणम् ॥

जो गहरी मित्रता चाहता है, उसने ये तीन बातें नहीं करनी चाहिए; मित्र के साथ विवाद, मित्र के साथ पैसे का संबंध, और मित्र की अनुपस्थिति में उसकी पत्नी के साथ बातचीत ।



वार्ता च कौतुकवती विमला च विद्या लोकोत्तरः परिमलः कुरङ्गनाभेः ।
तैलस्य बिन्दुरिव वारिणि दुर्निवारम् एतत् त्रयं प्रसरति स्वायमेव लोके ॥


कुतुहल उत्पन्न करनेवाले समाचार, विमला विद्या, और हिरन की नाभि में से आनेवाली लोकोत्तर परिमल
(कस्तुरी की सुवास) – इन तीनों का, पानी में गिरे हुए तेलबिंदु की तरह सहज प्रसार होता है ।


वपुः कुब्जीभूतं गतिरपि तथा यष्टिशरणा विशीणो दन्तालिः श्रवणविकलं श्रोत्र युगलम् ।
शिरः शुक्लं चक्षुस्तिमिरपटलैरावृतमहो मनो न निर्लज्यं तदपि विषयेभ्यः स्पृहयति ॥

शरीर को खूंध निकल आयी,
गति ने लकडी का सहारा ले लिया,
दांत गिर गये,
दो कान की श्रवणशक्ति कम हुई,
बाल सफेद हुए,
नजर कमजोर हुई;
फिर भी, मेरा निर्लज्ज मन! विषयों की कामना करता है ।



अतिपरिचयादवज्ञा संतत गमनादनादरो भवति ।
लोकः प्रयागवासी कूपे स्नानं समाचरति ॥

अति परिचय से उपेक्षा, और बार बार जाने से अनादर होता है । प्रयागवासी लोग कूए पर स्नान करते हैं !


अतिपरिचयादवज्ञा संतत गमनादनादरो भवति ।
मलये भिल्लपुरन्ध्री चन्दनतरु काष्ठ मिन्धनं कुरुते ॥

अति परिचय से उपेक्षा, और बार बार जाने से अनादर होता है । मलय पर्वत पर भील स्त्री चंदन के लकडे को इंधन में उपयोग करती है !


आत्मनो मुखदोषेण बध्यन्ते शुकसारिकाः ।
बकास्तत्र न बध्यन्ते मौनं सर्वार्थ साधनम् ॥

स्वयं के मुखदोष से तोता और सारिका शिकार हो जाते हैं; पर बगुले नहीं पकडे जाते । इस लिए, मौन सर्व अर्थ साधनेवाला है ।





शुभोपदेश दातारो वयोवृद्धा बहुश्रुताः ।
कुशला धर्मशास्त्रेषु पर्युपास्या मुहुर्मुहुः ॥

शुभ उपदेश देनेवाले, वयोवृद्ध, ज्ञानी, धर्मशास्त्र में कुशल – ऐसे लोगों की सदैव सेवा करनी चाहिए ।




आपत्सु मित्रं जानीयात् युद्धे शूरमृणे शुचिम् ।
भार्यां क्षीणेषु वित्तेषु व्यसनेषु च बान्धवान् ॥

सच्चे मित्र की कसौटी आपत्ति में, शूर की युद्ध में, पावित्र्य की ऋण में, पत्नी की वित्त जाने पर, और संबंधीयों की कसौटी व्यसन में होती है ।



कुस्थानस्य प्रवेशेन गुणवानपि पीडयते ।
वैश्वानरोऽपि लोहस्थः कारुकैरभिहन्यते ॥

कुस्थान में प्रवेश करने से गुणवान भी पीडित होता है;  अग्नि के साथ रहा हुआ लोहे भी हथौडे से पीटा जाता है ।


भ्रमन् सम्पूज्यते राजा भ्रमन् सम्पूज्यते द्विजः ।
भ्रमन् सम्पूज्यते योगी स्त्री भ्रमन्ती विनश्यति ॥

घूमनेवाला राजा, घूमनेवाला ब्राह्मण, और घूमनेवाला योगी पूजे जाते हैं; पर घूमनेवाली स्त्री नष्ट होती है ।


विश्वास प्रतिपन्नानां वञ्चने का विदग्धता ।
अङ्कमारुह्य सुप्तानां हन्तुः किं नाम पौरुषम् ॥

विश्वास से पास आये हुए को दगा देने में कोई होशियारी है ? गोद में सोये हुए को मारने में कोई पौरुष है ?



ब्रह्मघ्ने च सुरापे च भग्नव्रते च वै तथा ।
निष्कृतिः विहिता लोके कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः ॥

ब्रह्मघ्न, सुरापान और व्रतभंग के लिए शास्त्र में प्रायश्चित्त कहा गया है; पर कृतघ्न / thankless इन्सान.के लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं ।



पापान्निवारयति योजयते हिताय गुह्यं च गूहति गुणान् प्रकटीकरोति ।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः ॥


जो पाप से रोकता है, हित में जोडता है, गुप्त बात गुप्त रखता है, गुणों को प्रकट करता है, आपत्ति आने पर छोडता नहीं, समय आने पर (जो आवश्यक हो) देता है - संत पुरुष इन्हीं को सन्मित्र / good friend के लक्षण कहते हैं ।


आत्मनो मुखदोषेण बध्यन्ते शुकसारिकाः ।
बकास्तत्र न बध्यन्ते मौनं सर्वार्थसाधनम् ॥


तोता और मैना अपनी मधुर आवाज की वजह से (पिंजरे में) बंध जाते हैं, पर बगुला ऐसे बंधता नहीं (क्यों कि वह बोलता नहीं) । मौन ही सर्व अर्थ सिद्ध करने का साधन है ।


आलस्यं स्त्रीसेवा सरोगता जन्मभूमिवात्सल्यम् ।
संतोषो भीरूत्वं षड् व्याघाता महत्त्वस्य ॥

आलस्य, स्त्रीपरायणता, सदा का रोग, जन्मभूमि से आसक्ति, (अल्प) संतोष और भीरुता (असाहस), ये छे बडप्पन पाने में (प्रगति में) विघ्नरुप है ।



सुलभाः पुरुषाः राजन् सततं प्रियवादिनः ।
अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ॥

हे राजा ! सदैव प्रिय भाषण करनेवाले सुलभ मिल जाते हैं, किंतु अप्रिय जो हितदायी हो ऐसा भाषण करनेवाले वक्ता एवं श्रोता, दोनों ही मिलना दुर्लभ होता है ।



अलंकरोति हि जरा राजामात्यभिषग्यतीन् ।
विडंबयति पण्यस्त्री मल्लगायकसेवकान् ॥

राजा, अमात्य (प्रधान), वैद्य और संन्यासी को शोभा देनेवाली जरा (बुढापा), गणिका, मल्ल, गवैये और सेवक का अवमान कराती है ।


खळः सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यति ।
आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥

दुष्ट व्यक्ति दूसरे के राई जितने छोटे दोष भी देखता है, पर स्वयं के बिल्वपत्ते जैसे बडे बडे दोष दिखने के बावजुद भी उन्हें नहीं देखता !


वयोवृद्धास्तपोवृद्धा ये च वृद्धा बहुश्रुताः ।
ते सर्वे धनवृद्धानां द्वारि तिष्ठन्ति किंकराः ॥

चाहे वयोवृद्ध हो, तपोवृद्ध हो या ज्ञानवृद्ध हो; पर ये सभी धनवृद्ध (धनवान) के घर पे दास होकर खडे होते हैं !


मांसं मृगाणां दशनौ गजानाम् मृगद्विषां चर्म फलं द्रुमाणाम् ।
स्त्रीणां सुरूपं च नृणां हिरण्यम् एते गुणाः वैरकरा भवन्ति ॥

हिरन का मांस,
हाथी दांत,
शेर का चमडा (हिरन मारनेवाला याने शेर),
पेड के फल,
स्त्री का सौंदर्य और मनुष्य का द्रव्य, इतने गुण बैर खडा करनेवाले होते हैं ।



एको देवः केशवो वा शिवो वा एकं मित्रं भूपतिर्वा यतिर्वा ।
एका वासः पत्तने वा वने वा एका भार्या सुन्दरी वा दरी वा ।

इष्टदेव एक ही रखना, चाहे केशव हो या शिव; मित्र भी एक ही रखना, चाहे राजा हो या संन्यासी; निवास एक ही रखना, चाहे शहर हो या जंगल; पत्नी भी एक ही करना, या तो सुंदरी या फिर गुफा ।



या लोभाद्या परद्रोहात् यः पात्रे यः परार्थके ।
प्रीतिर्लक्ष्मीव्ययः क्लेशः सा किं सा किं स किं स किम् ॥

लोभ से की हो वह क्या प्रीति है ?
द्रोह से पायी हो वह क्या लक्ष्मी है ?
सत्पात्र के लिए किया हो वह क्या खर्च है ?
परार्थ के लिए किया हो वह क्या क्लेश है ?


शनैः पन्थाः शनैः कन्था शनैः पर्वतमस्तके ।
शनैर्विद्या शनैर्वित्तं पञ्चैतानि शनैः शनैः ॥

आहिस्ता आहिस्ता (धैर्य से) रास्ता काटना, आहिस्ता चद्दर सीना (या वैराग्य लेना), आहिस्ता पर्वत सर करना, आहिस्ता विद्या प्राप्त करना और पैसे भी आहिस्ता आहिस्ता कमाना ।



लक्ष्मीवन्तो न जानन्ति प्रायेण परवेदनाम् ।
शेषे धराभारक्लान्ते शेते नारायणः सुखम् ॥

लक्ष्मीवान मनुष्य दूसरों की वेदना नहीं समज सकते ।
देखो ! समस्त पृथ्वी का भार उठाये शेष नाग पर (लक्ष्मीपति) विष्णु कैसे सुख से सोये हुए हैं !



ब्राह्मणत्वस्य हि रक्षणेन रखितः स्याद् वैदिको धर्मः ।
वैदिक धर्म का रक्षण तब हि संभव है, जब.कि ब्राह्मणत्व का रक्षण हो ।



गोभिविप्रैश्च वेदैश्च सतीभिः सत्यवादिभिः ।
अलुब्धैः दानशूरैश्च सप्तभिर्धार्यते मही ॥

गाय, ब्राह्मण, वेद, सती, सत्यवादी, निर्लोभी, और दानवीर - इन सातों से पृथ्वी धारण होती है ।



नालस्य प्रसरो जलेष्वपि कृतवासस्य कोशे रुचि र्दण्डे कर्कशता मुखेऽतिमृदुता मित्रे महान्प्रश्रयः ।
आमूलं गुणसंग्रहव्यसनिता द्वेषश्च दोषाकरे यस्यैषा स्थितिरम्बुजस्य वसति युक्तैव तत्र श्रियः ॥

जिसकी नाल जल में होने पर भी कोसों दूर जिसकी सुवास फैली है, जिसका दण्ड कठिन है, मुख अति कोमल है, मित्रों को जो आश्रय देता है, पहले से हि जिसे गुणसंग्रह का व्यसन है, और दोष के प्रति जिसे द्वेष है; ऐसे पानी में जन्मे हुए कमल में लक्ष्मी का वास है, वह युक्त है ।



एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रे शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥

इस देश में समुत्पन्न ब्राह्मणों से पृथ्वी के समस्त मानव अपने अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें ।



प्रमदा मदिरा लक्ष्मीर्विज्ञेया त्रिविधा सुरा ।
दृष्ट्वैवोन्मादयत्यैका पीता चान्याति संचयात्॥

सुरा तीन प्रकार की है - प्रमदा, मदिरा और लक्ष्मी । एक को देखने से, एक को पीने से और तीसरी को संचय करने से मद पैदा होता है ।



परद्रव्येष्वाबिध्यानं मनसाऽनिष्टचिन्तनम् ।
वितथाऽभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम् ॥

दूसरे का धन अन्याय से लेने का विचार करना, दूसरे का अनिष्ट सोचना, और मन में मिथ्या बातों का (याने नास्तिक) विचार करना - ये तीन मानसिक पाप कर्म है ।




ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

"जय श्री राम कृष्ण परशुराम"




Sanskrit Subhashit - Samskrit Subhashit